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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ४०१ असत्य हैं। चेतनांश रुप से सत्य होने के कारण व्यक्त जगत् ब्रह्म सदृश हैं। जैसे व्याधकुल में संवर्धित राजकुमार को जब राजकुमारत्व का ज्ञान हो जाता हैं, तब वह व्याधकुल का परित्याग करके राजकुमारत्व को प्राप्त करता हैं। उसी प्रकार से जीव को आत्मज्ञान उदित होता हैं, तब सर्व प्रकार की अज्ञानजन्य भ्रान्तिओं को दूर करके ब्रह्मत्व को प्राप्त करता हैं । जैसे, राजकुमार का व्याधकुलत्व उसका वास्तविक कुल न होने से व्याधकुलत्वाभास मात्र हैं, उस प्रकार से जीव का जीवत्व आभास मात्र हैं। वस्तुतः उसका स्वरुप तो ब्रह्म ही हैं।) आभास के भेद :- आभास के कारणाभास और कार्याभास नाम के दो भेद हैं। कारणाभास अज्ञान के माध्यम से और कार्याभास अज्ञानजन्य कार्य के माध्यम से (२४४)परिलक्षित होता हैं। कारणाभास :- इस जगत के कारणभूत अज्ञान में स्थित चिदाभास, कारणाभास कहा जाता हैं और वह चैतन्यमात्र का (२४५)उपादान हैं । चेतन और अचेतन का आभास, आत्मा और अनात्मा का (२४६ लक्षण हैं। यह आभास अज्ञानजन्य होने के कारण मोहोत्थित भी हैं। इसलिए सकल आत्मपदार्थ में मोहजन्य प्रवृत्ति देखी जाती हैं। यह आभास 'चित्' के अभाव और भाव में भी उपादान रहता हैं । अभाव की स्थिति में उपलक्षित निर्धर्मिक ब्रह्म से कोई विरोध नहीं हैं। कार्याभास :- अज्ञानजन्य क्रियाकारक कार्यमात्र में प्रतीत होनेवाला आभास, (२४० कार्याभास कहा जाता हैं । समस्त जगत् के कार्य को कार्याभास कहा जाता हैं । यही अज्ञान(२४८) परिणाम (२४९)और जागतिक प्रपंच का उद्भावक कार्याभास अनेकरुपो में होता हैं। यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, दोनों आभास के बीच का भेद पूर्वापर क्रम का बोधक मात्र हैं। जैसे कि, कारणाभास अज्ञानगत और कार्याभास अज्ञानजन्य वस्तुगत हैं। इस तरह से कारणाभास पहले और कार्याभास पश्चात् (बाद में) उत्पन्न होता हैं । चैतन्य, कारणाभास का उपादान हैं और कार्याभास का उपादान अविद्या हैं । कारणाभास चैतन्य का अनुरोधी हैं और कार्याभास, अज्ञानादि उपाधियों का अनुरोधी हैं। प्रथम आत्मरुप अर्थ का अनुसरण करता हैं, तो द्वितीय अनात्मादि जगत् प्रपंच के सुख-दुःखादि का उत्पादक हैं। जब "चिद्" अविद्या में आभासित होता हैं, तब कारणाभास हैं और जब अविद्या कार्यो में भासित होती हैं, तब कार्याभास कही जाती हैं। श्रीआनंदगिरि के (२५० मत में समस्त द्वैत का मूलकारण अज्ञान और आकाशादि कार्यो की वृत्ति, दोनों प्रकार का आभास हैं। उसके रुप और उपाधि में स्थित होने के कारण आभास की मायामयी दो प्रकार की (कारण और कार्य) वृत्तियाँ होती हैं। इस प्रकार से जिसका आभास होता हैं, वह सत्त्वादि लक्षणो से हीन होने पर भी सत्त्वादि रुपो में प्रतीत होता हैं। जैसे दर्पण में मुखाभास, मुख के लक्षणो से हीन होने पर भी मुखवत् प्रतीत होता हैं। जैसे मुखाभास मिथ्या, अनिर्वचनीय, आपात रमणीय हैं और दर्पणादि उपाधि का नाश होने से मुखाभास का भी नाश हो जाता हैं। उसी तरह से आभास भी मिथ्या, आपात रमणीय और अज्ञानादि उपाधियों का (२५१'नाश होने से वह भी नाश हो जाता हैं। आभासवाद की समीक्षा :- आभासवाद के समर्थक श्रीसुरेश्वराचार्य का अभिप्राय हैं कि, इस जगत की स्थिति, (२४४) आत्माभासोऽपि योऽज्ञाने तत्कार्ये चावभासते । कार्यकरणतारुपः (बृ.उ.भा.वा.४.१३२०) (२४५) आत्माज्ञानमतः प्रत्यक् चैतन्याभासवत् सदा आत्मनः कारणत्वादेः प्रयोजकमिहेष्यते । (बृ.उ.भा.वा.४.३.३५५. तथा ४.३.१९) (२४६) चेतनाचेतनाभास आत्मानात्मत्वलक्षणः (बृ.उ.भा.वा.४.३.४२४) (२४७) क्रियाकारकफलात्मक आभास: । (नै.सि. २/५१) (२४८) बृ.उ. भा.वा. ४.३.३९४. (२४९) बृ.उ.भा.वा. १.२.१५,१.४.१३२, २.४. ४२५ ( २५०) आनन्दगिरिटीकाबृ.उ.भा.वा. १.४.६२६) ( २५१) डॉ. मुरलीधर पाण्डेय श्रीशंकरात्प्रागद्वैतवादः, १- ४५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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