________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
४०७
हुए ब्रह्म के कारण अनेक जीव दिखते हैं। फिर भी ब्रह्म के एकत्व में बाधा नहीं आती हैं। उपर्युक्त उद्धरणो से स्पष्ट हो जाता हैं कि, जीव में अज्ञानजन्य होनेवाले सुख दुःखादि का प्रभाव कूटस्थ ब्रह्म के उपर नहीं होता हैं। विशेष में... बृहदारण्यक उपनिषद् भाष्य में श्रीशंकराचार्य ने कहा हैं कि, बुद्धि की उपाधि से चैतन्य में प्रतिबिंबित जीव, सूर्य चंद्र के प्रतिबिंब के समान हैं(२७९)
निरुपाधिक ब्रह्म का प्रतिबिंबत्व इस प्रकार से संभवित हैं कि, जैसे आकाश में नीलत्वादि वर्णो का आरोप संभव हैं। श्रीशंकराचार्य ने निरुपाधिक ब्रह्म की प्रतिबिंबता का स्वीकार करके प्रश्नोपनिषद् कठोपनिषद् मुण्डकोपनिषद् और ऐतरेयोपनिषद् के भाष्यो में (२८० बिंबवाद की चर्चा की हैं। ___ पंचपादिका में भी कहा हैं कि, बिंबस्थान से ब्रह्मस्वरुप का और प्रतिबिंबस्थान से जीवस्वरुप का उपदेश(२८१) किया जाता हैं। जीव, प्रतिबिंब के सदृश कल्पित और प्रत्यक्ष चिद्रूप होता हैं। उसका अंतःकरण के अज्ञान के कारण जड बना रहना स्वाभाविक हैं और इसलिए ही अपने को कर्ता और भोक्ता मानता हैं। बिंबकल्प ब्रह्म और जीव के कल्पित रुप में एकरुपता संभवित नहीं हैं। इसलिए जीव के मिथ्यात्मक रुप को प्रदर्शित करने के लिए प्रतिबिंबवाद का सिद्धांत अनुकूल सिद्धांत(२८२) हैं । उपरांत, प्रतिबिंब का अपने आप अस्तित्व नहीं हैं, ऐसा स्वीकार करेंगे तो भी बिंब और प्रतिबिंब समान ही होते हैं, ऐसा मानना पडता हैं। उसी तरह से ब्रह्म और अज्ञानोपहित ब्रह्म जीव या ईश्वर एक ही हैं, भिन्न नहीं हैं। इस प्रकार माया खंडो में प्रतिबिंबित चैतन्य "मैं" पन के ख्याल में रहकर संसार के बंधनों में उलझता हैं और उसे जीव कहा जाता हैं।
•"आभास, अवच्छेद और प्रतिबिम्ब" वाद की समीक्षा :- पञ्चदशी के प्रणेता, श्रीविद्यारण्य स्वामी ने और उसके व्याख्याकार श्रीरामकृष्ण एवं श्रीमदच्युताचार्य ने आभास, प्रतिबिम्ब और अवच्छेद के भेद का विरोध किया हैं। उनके मत में उपर्युक्त तीनों वादो में एक ही वाद परमार्थवस्तु, ब्रह्म तथा जीव के अभेदत्व का प्रतिपादन किया गया हैं । (२८३) श्रीरामकृष्ण ने पञ्चदशी की पददीपिका नामक टीका में लिखा हैं कि जिस प्रकार दर्पण में प्रतीयमान मुख, सद्य:मुख जैसा प्रतीत होता हैं, उसी प्रकार बिम्ब भी सत्य प्रतीत होता हैं । (२८४)पञ्चदशी में एक अन्य स्थल पर आभास का पर्याय प्रतिबिम्ब हैं, ऐसा निर्देश किया गया हैं । (२८५) और कहा गया हैं कि- जहाँ ब्रह्म के इषद्भास से जीव भासित होता हैं, वहाँ आभास होता हैं, उसी प्रकार प्रतिबिम्ब भी सुसंगत होता हैं । ब्रह्म बिम्बलक्षणों से हीन होते हुए, बिम्बवत् आभासित होता रहता हैं, (२८६)जैसे गिरिगुहादियाँ में ध्वनि स्वयमेव प्रतिध्वनित होती रहती हैं, उसी प्रकार निराकार ब्रह्म भी साकार स्वयमेव प्रतीत होता रहता हैं। श्रीमदच्युतराय ने पञ्चदशी की टीका में लिखा हैं कि हरिहर चतुरानन के अवतार स्वरुप, श्रीबादरायण, श्रीशंकराचार्य तथा श्रीसुरेश्वराचार्य जो क्रमशः सूत्र, भाष्य और वार्तिक के प्रणेता हैं, पाणिनि- व्याकरण के समान मुनित्रय हैं । (२८७)
(२७९) बुद्धयुपाधिस्वभावानुविधायी हि सः चन्द्रादिप्रतिबिम्बवत् । (बृ. उ. शां. भा. २.१.९) (२८०)प्र.उ.४.९. कठोप-६२, मुण्डकोप. ३.९,ऐ.उ.३.१. (२८१) बिम्बस्थानीयब्रह्मस्वरुपतया प्रतिबिम्बस्थानीयस्य जीवस्योपदिश्यते-पञ्चपादिका प्रथमवर्णके पृ-१०८ (२८२) जीवः पुनः प्रतिबिम्बकल्पः सर्वेषां प्रत्यक्षश्चिद्रुप: नान्त:करणे जाड्येनास्पन्दितः स चाह कर्तृत्वमात्मनो रुपं मन्यते, न बिम्बकल्पब्रह्मात्मैकरुपताम् अतो युक्तस्तद्रुपावगमे मिथ्यापगमः ॥ (पञ्चपादिका) (२८३) नायं दोषश्चिदाभासः कूटस्थैकस्वभाववान् । आभासत्वस्य मिथ्यात्वात् कूटस्थस्याविशेषणात् ।।प.द.तृ.प्र.१५ (२८४) यथादर्पणे प्रतीयमानस्य मुखाभासस्य ग्रीवास्थं मुखमेव तत्त्वं तद्वदिति ।-वही, (२८५) चिदाभासविशिष्टानां तथानेकधियामसौ। पं.द.कूट पृ.३. चिदाभासविशिष्यानाम् चित्प्रतिबिम्बयुक्तानाम् ।-वही (२८६) इषद्भासनमाभासः प्रतिबिम्बस्तथाविधः । बिम्बलक्षणहीनस्सन् बिम्बवत्भासते हि सः ।। पं.द, कूट. पृ.१३२ (२८७) कूटस्थो ब्रह्मजीवेशावित्येवं चिच्चतुर्विधाः । घटाकाशमहाकाशौ जलाकाशाभ्ररवेय॑था ।। पं.द. चित्रदीप. पृ.१८.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org