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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, , वेदांतदर्शन
चार शिष्य में से एक शिष्य थे। उनका गृहस्थाश्रम का नाम श्रीमंडनमिश्र था और वे स्वसमय के प्रसिद्ध मीमांसक और प्रखर वेदांती थे। जोरदार शास्त्रार्थ के अंत में उन्हों ने श्री शंकराचार्य का शिष्यत्व स्वीकार किया था । उन्हों ने अपने गुरु श्रीशंकराचार्य के "अद्वैतसिद्धांत" की सुसंगत व्याख्या करने के लिए "आभासवाद'' की स्थापना की थी।
यह सिद्धांत इस अनुसार से हैं: यह जगत मिथ्या हैं। क्योंकि, वह केवल आभास हैं। जैसे ऐन्द्रजालिक अथवा जादूगर अपने जादू से एक सृष्टि का निर्माण करे और वह सृष्टि जैसे आभास मात्र होती हैं, वैसे जगत आभास हैं। आभास के सिद्धांत अनुसार मिथ्या वस्तु भी सत्य प्रतीत होती हैं । जैसे, रस्से की (रज्जु की) जगह सर्प प्रतीत होता हैं। जैसे किसी मन से विक्षिप्त बनी हुए व्यक्ति को जूठी -जूठी काल्पनिक वस्तुयें दिखती हैं और मन की विक्षिप्तता चली जाने से जो आभासी वस्तुयें चली जाती हैं, वैसे जगत की सत्यता आभासमात्र हैं । ब्रह्म एक और अनन्य होने पर भी सृष्टि में अनेक रुप से व्यवहरित होता दिखाई देता हैं, वह आभास हैं। जैसे जादूगर का जादू देखता मनुष्य जादूई दुनिया का अनुभव करता होने पर भी उसको आभास समजता हैं, वैसे ज्ञानी पुरुष इस सृष्टि में व्यवहरित हो, तो भी उसको आभासमात्र समजता 1
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आभासवाद की स्थापना का उद्भवबिंदु :- अद्वैतवाद में जीव के एकत्व एवं अनेकत्व को लेकर अनेक प्रकार के विवाद उपस्थित हैं। एक जटिल समस्या खड़ी हुई हैं कि जीव को किस स्वरुप में स्वीकार करे ? जीव ब्रह्म ही हैं ? कि उससे भिन्न हैं ? श्रुति जीव को ब्रह्म से पृथक् नहीं मानती हैं। यदि जीव को जीवस्वरुप में ब्रह्म माना जाता हैं तो "द्वैत" वाद की आपत्ति आकर खड़ी रहती हैं। क्योंकि, जीवो की असंख्यातता प्रत्यक्ष सिद्ध हैं। यदि जीव की स्थिति ब्रह्म से भिन्न मानी जाये तो सिद्धांत पक्ष की हानी होती हैं। क्योंकि, अद्वैतवाद में ब्रह्म से पृथक् अन्य किसी भी सत्ता का स्वीकार नहीं किया हैं। ऐसी परिस्थिति में अद्वैतवादी आचार्यो ने पूर्वोक्त समस्या का समाधान ढूँढना आवश्यक हुआ।
श्री सुरेश्वराचार्य ने पूर्वोक्त समस्या के समाधान के लिए आभासवाद की स्थापना की और जीव को ब्रह्म का आभास सुद्धां माना। उनका मत हैं कि, नानाविध नामरूपात्मक जगत की प्रतीति यथार्थ नहीं हैं परन्तु आभासात्मिका हैं, जिसका कारण ( २२८ ) अविद्या हैं। जिस प्रकार से मृगमरीचिका के कारण दूरस्थ सूर्य के किरणो में जल की प्रतीति होती हैं, परंतु वहाँ पहुँचने से जल का संपूर्ण अभाव दिखाई देता हैं,' प्रकार से यह जगत अविद्या के कारण यथार्थ दिखता हैं, जब अविद्या की निवृत्ति हो जाती हैं, तब जगत अयथार्थ दिखता जाता हैं ।
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श्रीशंकराचार्य ने अंशाधिकरण में आभास और सूत्र के व्याख्यान में भी आभास की चर्चा की हैं और जीव को (२२९) आभास कहा हैं, उसी तरह से पानी में सूर्य का प्रतिबिंब पडता हैं, तब जल में सूर्य का आभास होता हैं परन्तु वास्तव में जल में सूर्य होता नहीं हैं। वैसे जीव भी आभासमात्र हैं। छान्दोग्योपनिषद् भाष्य में जीव को देवता का आभास (२३०) कहा हैं । श्री आनन्दगिरि ने आभास की व्याख्या करते हुए कहा हैं कि, जब जीव अज्ञानवश स्वयं अपने को अहंकार पूर्वक "मैं हूँ" ऐसा कहता हैं, तो वह ( २३१) आभास हैं। वस्तुतः चित्त का अवमतपूर्वक (२२८) बृहदारण्यकभाष्यवार्तिक- पृ.९९६, विधि-विवेक २१.२२. (२२९) आभास एव चैषजीवः परमात्मनो सूर्यादिवत् प्रतिपत्तव्य: (ब. सू. शां. भा. २.३.५० ) ( २३०) जीवो हि नाम देवतायाः आभासमात्रः । (छा.उ. शां. भा. ६.३.२.) ( २३१ ) आभिमुख्येन अहमित्यपरोक्षेण भासत इत्याभास: प्रत्यक् चितोऽवमतो भासो नाम आभासः । (बृह. उ. भा. वा. २.१.२१६. आनन्दगिरिटीका)
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