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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
कहा हैं, परंतु दूसरे दो चिदाभास तथा शरीर (स्वप्नकल्पित ) जीव का तादात्म्य ब्रह्म के साथ नहीं होता हैं । (२१५) आवरण और विक्षेपवाली भाया ब्रह्म के सहारे रहे हुए हैं। ब्रह्म की अखंडता को ढककर वह माया उसमें जगत और जीव की कल्पना करती हैं। (संसार की रचना करती हैं ।) (२१६) बुद्धि में रहा हुआ चिदाभास हैं वह जीव * हैं, वही कर्म करता हैं और फल भुगतता हैं । यह जो सभी भूत, भौतिक, भोग्य वस्तुयें हैं, (२१७) वह जगत हैं। अनादिकाल से आरंभ करके मोक्ष तक के व्यवहार काल में दोनो चलते रहते हैं। इसलिए जीव और जगत दोनों व्यावहारिक हैं (२१८) | आवरण और विक्षेपवाली निद्रा (अविद्या) चिदाभास के आधार पर रही हुई हैं। प्रथम जीवभाव और जगत को ढककर (स्वप्न में) नये नये रुप की कल्पना करती हैं। (२१९) वे दोनो प्रतीतिकाल में (अनुभव के समय) ही होने से प्रातिभासिक हैं । स्वप्न में से जागे हुए मनुष्य की पुन: स्वप्न में स्थिति नहीं होती हैं, इसलिए स्वप्न का जगत और स्वप्न का जीव (जागने के बाद) प्रतीत नहीं होते हैं । (२२०) स्वप्नावस्था में रहे हुए प्रातिभासिक जीव का जगत प्रातिभासिक हैं, परन्तु वह प्रतीत होते जगत को वास्तविक मानता हैं। परन्तु (जाग्रत् के) व्यावहारिक जीव की दृष्टि से वह सब मिथ्या हैं । (२२१) व्यावहारिक जीव तो व्यावहारिक जगत को सत्य जानता है; परन्तु पारमार्थिक चेतन व्यावहारिक को मिथ्या मानता हैं ( २२२ ) पारमार्थिक जीव स्वयं की ब्रह्म के साथ एकता को पारमार्थिक रुप से मानते हैं और वह अन्य जगत को देखता नहीं हैं । यदि वह अन्य को देखता हैं तो मिथ्यारुप से देखता हैं । (२२३)
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जैसे मधुरता, द्रवभाव और शीतलता इत्यादि जल के धर्म तरंग में अनुवर्तित होकर उसमें रहे हुए फेन में भी अनुगत (प्रवेश किये) हुए हैं । (२२४) वैसे साक्षी में रहे हुए सत्-चित्-आनंद जीव के (ये अंश) व्यावहारिक स्वरुप में आते हैं और उसके द्वारा प्रातिभासित जीव में भी चलते रहते हैं । ( २२५) जब फेन तरंग में लय पाते हैं, तब उसका द्रवत्व इत्यादि तरंग में लय पाता हैं और तरंग जल में लय पाता हैं, तब उसके धर्म, वहनत्व इत्यादि जल में लय पाता हैं।(२२६) उसी ही तरह से प्रातिभासिक जीव का व्यावहारिक जीव में लय होता हैं, तब उसमें रहे हुए संस्कार और जगत आदि का व्यावहारिक जीव में लय होता हैं और व्यावहारिक जीव जब साक्षी में लय पाता हैं, तब सत्, चित्, और आनंद अंत में साक्षी में लय पाते हैं । (२२७)
• अद्वैत वेदांत में भिन्न- भिन्न मान्यतायें :- श्रीशंकराचार्य के उत्तरवर्ती आचार्यो ने "अद्वैतवाद" को समजाने के लिए जो भिन्न-भिन्न सिद्धांतो का प्ररुपण किया हैं, उसको अब क्रमशः देखेंगे ।
( १ ) आभासवाद :- आभासवाद सिद्धांत के प्रवर्तक के रुप में श्री सुरेश्वराचार्य माने जाते हैं। वे शंकराचार्य ( २१५ ) अवच्छिन्नस्य जीवस्य पूर्णेन ब्रह्मणैकताम् । तत्त्वमस्यादिवाक्यानि जगुर्नेतरजीवयोः ||३४|| (२१६) ब्रह्मण्यवस्थिता माया विक्षेपावृत्तिरुपिणी । आवृत्याखण्डतां तस्मिन् जगज्जीवो प्रकल्पयेत् ॥ ३५॥★ चैतन्यसह बुद्धि में रहे हुए चिदाभास को जीव कहा गया हैं, केवल चिदाभास को नहीं । (२१७) जीवो धीस्थचिदाभासो भवेद्भोक्ता हि कर्मकृत् । भोग्यरुपमिदं सर्वे जगत्स्याद् भूतभौतिकम् ||३६|| ( २१८ ) अनादिकालमारभ्य मोक्षात्पूर्णमिदं द्वयम् । व्यवहारे स्थितं तस्मादुभयं व्यावहारिकम् ||३७|| ( २१९ ) चिदाभासस्थिता निद्रा विक्षेपावृतिरुपिणी । आवृत्य जीवजगती पूर्वे नूत्ने तु कल्पयेत् ||३८|| ( २२० ) प्रतीतिकाल एवैते स्थितत्वात्प्रातिभासिके । न हि स्वप्नबुद्धस्य पुनः स्वप्ने स्थितिस्तयोः ||३९|| (२२१ ) प्रातिभासिक जीवो यस्तज्जगत्प्रातिभासिकम् । वास्तवं मन्यतेऽन्यस्तु मिथ्येति व्यावहारिकः ||४०|| ( २२२ ) व्यावहारिकजीवो यस्तज्जगद्व्यावहारिकम् । सत्यं प्रत्येति मिथ्येति मन्यते पारमार्थिकः ॥४१॥ (२२३) पारमार्थिकजीवस्तु ब्रह्मैक्यं पारमार्थिकम् । प्रत्येति वीक्षते नान्यद्वीक्षते त्वनृतात्मना ॥४२॥ (२२४ ) माधुर्यद्रवशैत्यानि नीरधर्मास्तरंगके । अनुगम्याथ तन्निष्ठे फेनेऽप्यनुगता यथा ||४३|| ( २२५) साक्षिस्थाः सच्चिदानंदा: सम्बन्धा व्यावहारिके । तद् द्वारेणानुगच्छन्ति तथैव प्रातिभासिके ॥४४॥ (२२६) लये फेनस्य तद्धर्मा द्रवाद्या: स्युतरङ्गके। तस्यापि विलये नीरे तिष्ठन्त्येते यथा पुरा ॥४५॥ ( २२७) प्रातिभासिकजीवस्य लये स्युर्व्यावहारिके । तल्लये सच्चिदानन्दः पर्यवस्यन्ति साक्षिणि ॥४६॥ (दृग्-दृश्यविवेक)
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