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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
के दो प्रकार हैं; दृश्यानुविद्ध और शब्दानुविद्ध (२०४)। काम, संकल्प, संदेह, इत्यादि (४ थे श्लोक में कही हुई मनोवृत्तिर्यां) जो चित्त में मालूम पडती हैं वे सभी वृत्तिर्यां मायामय हैं, मेरे में नहीं हैं, ऐसी भावनापूर्वक साक्षी बनकर चेतन का ध्यान (साक्षी भाव से स्थिरता) करे, वह दृश्यानुविद्ध सविकल्प समाधि हैं । (२०५ ) मैं असंग, सच्चिदानंद, स्वप्रकाश और द्वैतरहित हुँ, ऐसी शब्दावृत्ति सहित (बारबार शब्दोच्चारण कर के उसमें मनोवृत्ति को लगाकर आदरभाव से स्थिर रहना वह शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि हैं । (२०६) स्वानुभवरुप आनंद में प्रवेश होने से दृश्य की और शब्द की उपेक्षा होकर (ध्याता, ध्यान, ध्येयरुप त्रिपुटी का लय करके) चित्त जब गतिवाले वायु से रहित स्थान में रहे हुए निश्चल दीपक की तरह अचल रहे (आत्मा में लय भाव को प्राप्त करे) तब वह निर्विकल्प समाधि हैं । (२०७) दृश्यानुविद्ध समाधि का दूसरा प्रकार (बाह्य समाधि ) नीचे बताये अनुसार हैं : हृदय में की जाती दृश्यानुविद्ध समाधि की तरह बाहर के प्रदेश में मनोवृत्ति जिस जिस वस्तु में जाये, उस उस वस्तु के नाम और रुप छोडकर सन्मात्र में (नाम और रूप के अंदर आधार रुप में रहे हुए चेतन में) चित्त एकाग्र हो उसको भी दृश्यानुविद्ध समाधि कहते हैं। (अर्थात् बाहर की वस्तुओं को विलय करने पर भी साक्षी भाव से स्थिर रहना उसे दृश्यानुविद्ध समाधि कहते हैं ।) (२०८) - 'दूसरे प्रकार की शब्दानुविद्ध बाह्यसमाधि नीचे अनुसार से होती हैं, सच्चिदानंदरुप लक्षणवाली अखंड एकरस वस्तु सभी जगह हैं, 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' जो प्रत्यक्ष हो रहा हैं, वह सब ब्रह्मरूप हैं, ऐसा अविच्छन्न चिंतन (दूसरे विचार बीच में न आये, ब्रह्मभावना बनी रहे) वह मध्यम समाधि हैं । (२०१९) बाह्य समाधि का तीसरा प्रकार नीचे अनुसार हैं । परम आनंद के अनुभव से बाहर की वस्तुयों के दर्शन विचारादि से उपरामता होकर वृत्ति अंतर्मुख बन जाती हैं वह तीसरे प्रकार की समाधि हैं। सब मिलके उपर अनुसार छ: प्रकार की समाधि होती हैं। मुमुक्षु ये छ: समाधि से निरंतर काल व्यतीत करें (२१०) - अब नित्यसमाधि का प्रकार कहा जाता हैं: परमात्मा का साक्षात्कार होने से और देह का अभिमान गल जाने से उस ब्रह्मवेत्ताका मन जहाँ जहाँ जाता हैं, अंतर में अथवा बाहर वहाँ वहाँ उसको समाधि होती है; अर्थात् उसको सभी जगह ब्रह्म का अनुभव हुआ करता हैं । (२११) इस तरह से ब्रह्म का साक्षात्कार होने से हृदय की गिरह (अज्ञान) छिद जाती हैं, सब संशय (आत्मा कौन, ईश्वर कौन, जगत क्या हैं ? मेरा उद्धार किस तरह से होगा ? जो ज्ञान मिला वह जाना हैं या नहि इत्यादि) छिद जाते हैं और संचित कर्मो का नाश होता हैं। (आगामी स्पर्श नहि करते हैं, केवल प्रारब्ध भोग भुगतकर समाप्त हो जाते हैं ।) (२१२) अविद्या अवच्छिन्न, चेतन, चिदाभास और तीसरा स्वप्नकल्पित जीवभाव ऐसे तीन प्रकार का जीव जाने । उसमें पहला अर्थात् चेतन पारमार्थिक हैं । (अर्थात् वह ब्रह्म हैं।) (२१३) अवच्छेद (भेद) कल्पित हैं परन्तु उसमें अवच्छेद प्राप्त किया हुआ (चैतन्य) वास्तविक हैं। उसमें जीवत्व आरोप से हैं, परंतु ब्रह्मत्व स्वभाव से हैं। (२१४) अवच्छिन्न जीव का ब्रह्म के साथ तादात्म्य वेदो ने तत्त्वमसि ("वह तुं हैं") इत्यादि महावाक्यों द्वारा
(२०४) सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्विविधो हृदि । दृश्यशब्दानुवेधेन सविकल्पः पुनर्द्विधा ॥ २३ ॥ (२०५) कामाद्याश्चित्तगा दृश्यास्तत्साक्षित्वेन चेतनम् । ध्यायेद् दृश्यानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः ||२४|| (२०६ ) असंगः सच्चिदानंदः स्वप्रभो द्वैतवर्जित: । अस्मीति शब्दविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः ॥२५॥ ( २०७ ) स्वानुभूतिरसावेशाद् दृश्यशब्दानुपेक्षितुः । निर्विकल्पः समाधिः स्यान्निवातस्थितदीपवत् ॥ २६॥ ( २०८ ) हृदीव बाह्यदेशेऽपि यस्मिन्कस्मिश्च वस्तुनि । समाधिराद्यः सन्मात्रान्नामरुपपृथक्कृतिः ॥२७॥ ( २०९ ) अखण्डैकरसं वस्तु सच्चिदानंदलक्षणम् । इत्यविच्छिन्नचिन्तेयं समाधिर्मध्यमो भवेत् ॥२८॥ ( २१० ) स्तब्धीभावो रसास्वादात्तृतीयः पूर्ववन्मत: । एतैः समाधिभिष्षड्भिर्नयेतन्कालं निरंतरम् ॥ ॥ २९ ॥ ( २११ ) देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि । यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः ||३०|| (२१२) भिद्यते हृदयग्रंथिः छिन्द्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्यकर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥३१॥ ( २१३) अवच्छिन्नश्चिदाभासस्तृतीयः स्वप्नकल्पितः । विज्ञेयस्त्रिविधो जीवस्तत्राद्यः पारमार्थिकः ॥३२॥ ( २१४ ) अवच्छेदः कल्पितस्स्यादवच्छेद्यं तु वास्तवम् । तस्मिन्जीवत्वमारोपात् ब्रह्मत्वं तु स्वभावतः ||३३|| (दृग्-दृश्य विवेक)
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