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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
अंत:करण की वृत्ति चैतन्य के आभास के साथ एकता को पाकर स्वप्न में वासनाओं का (वासनाजन्य विविध विषयो का) अनुभव करता हैं और जाग्रत् दशा में इन्द्रियो के द्वारा बाहर के विषयो का अनुभव करता हैं । (१९२) मन और अहंकार (अंत:करण वृत्ति) जिसका उपादान कारण लिंग (सूक्ष्म) शरीर हैं, वह एक जडात्मक (स्थूल) शरीर को प्राप्त करता हैं, तब तीन अवस्था (जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति) को प्राप्त करता हैं, वैसे ही जन्म लेता है। और मरता हैं | (१९३)
माया में दो शक्ति हैं : एक विक्षेपरुप हैं और दूसरी आवरण रुप हैं। विक्षेप शक्ति सूक्ष्म शरीर से लेकर ब्रह्मांड पर्यंत जगत की रचना करती हैं । (१९४) सृष्टि अर्थात् जल में फेन इत्यादि की भांति ब्रह्मरुप सच्चिदानंद वस्तु में सर्व नामरुप का विस्तार हैं । (यह विक्षेपशक्ति का कार्य हैं ।) (१९५) दूसरी जो आवरणशक्ति हैं, वह अंतर के द्रष्टा और दृश्य की विलक्षणता को ढकती हैं और बाहर रहे हुए ब्रह्म की और सृष्टि की विलक्षणता को ढकती हैं, वह संसार को चलाने का कारण हैं । (२९६)
साक्षी के सामने स्थूल शरीर में रहा हुआ जो सूक्ष्म शरीर प्रतीत होता हैं वह चेतन के आभास के प्रवेश से व्यावहारिक जीव हैं । (१९७) इस तरह से जीवपन के आरोप से साक्षी में भी जीवत्व भासित होता हैं; परंतु आवरण शक्ति उत्पन्न आच्छादन (अज्ञान) नष्ट हो तो द्रष्टा और दृश्य का भेद मालूम पडता हैं और साक्षी का जीवपन मिट जाता हैं । (९९८) जो आवरणशक्ति जगत के और ब्रह्म के भेद को ढक रही हैं, उस शक्ति के कारण ब्रह्म जीव और संसाररुप में प्रतीत होता हैं । (१९९) जब उस आवरण का नाश हो तब ब्रह्म का और जगत का भेद मालूम पडता हैं, इसलिए विकार जगत में है, परन्तु ब्रह्म में नहीं हैं । (२००) संसार के सभी पदार्थों में पांच तत्त्व हैं : अस्ति (अस्तित्व न हो तो अनुभव नहीं होगा इसलिए मूल में कुछ नित्य द्रव्य हैं ।) भाति (प्रकाशित होता हैं अर्थात् अनुभव में आता हैं।) प्रिय (प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई ईश्वर हैं ही।) अथवा अस्ति, भाति और प्रिय अर्थात् सत्-चित्-आनंद ये तीनो ब्रह्मरुप हैं। नाम और रुप अंतिम दो संसाररुप (उत्पत्ति-नाशवान् होने के कारण मिथ्या) हैं।(२०१) आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में अर्थात् पंचभूतात्मक सृष्टि में तथा देव, तिर्यक् और मनुष्य इत्यादि जीवो में अस्तिभाति-प्रिय ये तीनो सत्-चित्- आनंदरुप में हैं । परन्तु वे रुप और नाम के कारण भेद प्राप्त करते हैं । (२०२)
(इसलिए वह विनाशी) नाम और रुप, इन दोनों की उपेक्षा कर के (नित्य ऐसे) सच्चिदानंदपरायण बनकर हृदय (अंतरात्मा) में अथवा बाहर (ब्रह्म में) सर्वदा, चित्त को एकाग्र करना चाहिए। वह समाधि कितने प्रकार की हैं ?(२०३) हृदय में दो प्रकार की समाधि हो सकती हैं : सविकल्प और निर्विकल्प। उपरांत सविकल्प समाधि
( १९२ ) अंत:करणवृत्तिश्च चितिच्छायैक्यमागता । वासनाः कल्पयेत्स्वप्ने बोधेऽक्षैर्विषयान्बहिः ॥ ११ ॥ ( १९३ ) मनोऽहंकृत्युपादानं लिङ्गमेकं जडात्मकं । अवस्थात्रयमन्वेति जायते म्रियते तथा ॥ १२ ॥ ( १९४ ) शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरुपकः । विक्षेपशक्तिलिङ्गादि ब्रह्माण्डान्तं जगत्सृजेत् ॥१३॥ ( १९५ ) सृष्टिर्नाम ब्रह्मरुपे सच्चिदानन्दवस्तुनि । अब्धौ फेनादिवत्सर्वनामरुपप्रसारणा ॥१४॥ ( १९६ ) अंतर्दृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः । आवृणोत्यपरा शक्तिः सा संसारस्य कारणम् ॥ १५ ॥ (१९७) साक्षिण: पुरतो भाति लिङ्ग देहेन संयुतम् । चितिच्छायासमावेशाज्जीवः स्याद्व्यावहारिकः ॥ १६॥ ( १९८ ) अस्य जीवत्वमारोपात्साक्षिण्यप्यवभासते । आवृतौ तु विनष्टाभ्यां भेदे भातेऽपयाति तत् ॥१७॥ ( १९९ ) तथा सर्गब्रह्मणोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति । या शक्तिस्तद्वशाद्ब्रह्म विकृतत्वेन भासते ||१८|| (२०० ) अत्राप्यावृतिनाशेन विभाति ब्रह्मसर्गयो: । भेदस्तयोर्विकारः स्यात्सर्गे न ब्रह्मणि क्वचित् ॥ १९ ॥ ( २०१ ) अस्ति भाति प्रियं रुपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् । आद्यत्रयं ब्रह्मरुपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ॥ २०॥ ( २०२ ) खवाय्वग्निजलोर्वीषु देवतिर्यङ्नरादिषु । अभिन्नाः सच्चिदानंदा: भिद्येते रुपनामनी ॥ २१ ॥ ( २०३) उपेक्ष्य नामरुपे द्वे सच्चिदानन्दतत्परः । समाधिं सर्वदा कुर्याद् हृदये वाऽथवा बहिः ॥२२॥ (दृग्-दृश्य विवेकः)
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