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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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थी और देहादि से विपरीत आत्मा के स्वरुप का जो प्रकाश होना वही मुक्ति कही जाती हैं। यह मुक्ति सदा समाधि में रहनेवाले को ही सिद्ध होती हैं, दूसरी तरह से सिद्ध नहीं होती हैं । (८४३-८४४)
• अद्वैत वेदांत में दृग-दृश्य विवेक :श्रीशंकराचार्य ने "दृग-दृश्य विवेक" नाम के ग्रंथ में दृष्टा-दृश्य का विवेक, सृष्टिप्रक्रिया, समाधि के दो भेद और सात प्रकार आदि विषयो की जो स्पष्टतायें की हैं, वह अब देखेंगे।
सामान्य तौर पे देखे तो रुप दृश्य है और नेत्र दृष्टा हैं। बाद में अंतर्मुख हो तो नेत्र दृश्य लगता हैं और मन द्रष्टा होता हैं। बाद में ज्यादा अंतर्मुख होने से मालूम होगा कि, मन, बुद्धि इत्यादि वृत्तिर्यां दृश्य हैं और साक्षी द्रष्टा हैं। वह साक्षी दृश्य होता ही नहीं हैं १८२)। नीला, पीला, स्थूल, सूक्ष्म, ह्रस्व और दीर्घ इत्यादि बहोत प्रकार के रुप को एक ही समय नेत्र देखता हैं । (१८३) एक साथ अंधता, मंदता और तीक्ष्णता आदि नेत्र के धर्मो की कल्पना मन कर लेता हैं। श्रोत्र और त्वचा इत्यादि के विलयो के लिए भी इस अनुसार से समज लेना । अर्थात् सब को मन एकसाथ जान लेता हैं । (१८४) इच्छा, संकल्प, संशय, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, अधीरता, लोकलज्जा, निश्चय और भय इत्यादि मनोवृत्तियों को भी एक ही समय चेतन प्रकाशित करता हैं । १८५) यह चेतन जन्म नहीं लेता हैं, विनाश प्राप्त नहीं करता हैं, वृद्धि नहीं पाता हैं और क्षीण नहीं होता हैं। वह स्वयं अपने आप प्रकाशित होता हैं और दूसरो को साधन रहित होने पर भी प्रकाशित करता हैं । (यह एक ही सच्चा द्रष्टा हैं। दूसरे जो आत्मा के कारण मालूम होते हैं वे सभी दृश्य हैं । (१८६) चेतन के आभास के प्रवेश से बुद्धि में आत्मा का भान होता हैं । वह बुद्धि दो प्रकार की हैं । एक अहंकाररुप हैं और दूसरी मनोरुप हैं । १८७) चेतन के आभास की और अंहकार की एकता अग्नि और तप्त लोहे के गोले जैसी मानी गई हैं। उस आभास और अहंकार के साथ की एकता के भ्रम से देह चेतनत्व को प्राप्त किया हुआ मालूम होता हैं । अर्थात् “मैं देह हुँ' ऐसी भ्रांति होती हैं । १८८)
चेतन के आभास को चिदाभास कहते हैं। चिदाभास का और अहंकार का तादात्म्य संबंध (एकता) सहज हैं; स्थूल शरीर के साथ चिदाभास की एकता कर्म से ही हैं अर्थात् प्रारब्ध कर्म से उत्पन्न हुई हैं। साक्षी के साथ चिदाभास की एकता भ्रांतिकल्पित हैं (१८९) अहंकार और चिदाभास की एकता स्वाभाविक होने से उसकी निवृत्ति अहंकार और चिदाभास रहे तब तक होती नहीं हैं। परन्तु प्रारब्धकर्म का क्षय होने से नया जन्म न होने से शरीर और चिदाभास की एकता निवृत्त होती हैं और साक्षी के साथ जो चिदाभास की एकता है वह (भ्रांतिजन्य होने से) ज्ञान होने से निवृत्त होती हैं । (१९०)
सुषुप्ति में अहंकार का लय होने से शरीर जड जैसा होता हैं, इससे देह में से 'मैं पन' (चेतना-भावना) निवृत्त होता हैं। अहंकार के आधे विकास से स्वप्न उत्पन्न होता हैं और अहंकार का पूर्ण विकास यह जाग्रत् अवस्था हैं । (१९१) (१८२ ) रुपं दृश्यं लोचनं दृक तद् दृश्यं दृक्त मानसम्। दृश्या धीवृत्तयः साक्षी दृगेव न तु दृश्यते॥१॥ (१८३) नीलपीतस्थूल
दभेदतः । नानाविधानि रुपाणि पश्येल्लोचनमेकधा ॥२॥ (१८४) आन्ध्यमान्द्यपटुत्वेषु नेत्रधर्मेषु चैकधा। संकल्पयेन्मनः श्रोत्रत्वगादौ योज्यतामिदम् ॥३॥ (१८५) कामः संकल्पसंदेहौ श्रद्धाश्रद्धे धृतीतरे । हीींर्भीरित्येवमादीन् भासयेदेकधा चितिः ॥४॥ (१८६) नोदेति नास्तमेत्येषा न वृद्धि याति न क्षयम् । स्वयं विभात्यथान्यानि भासयेत्साधनं विना ॥५।। (१८७) चिच्छायावेशतो बुद्धौ भानं धीस्तु द्विधा स्थिता । एकाहंकृतिरन्या स्यादंतःकरणरुपणी ॥६।। (१८८) छायाहंकारयोरैक्यं तप्तायःपिंडवन्मतम् । तदहंकारतादात्म्यादेहश्चेतनतामगात् ॥७॥(१८९)अहंकारस्य तादात्म्यं चिच्छायादेहसाक्षिभिः । सहजं कर्मजं भ्रान्तिजन्यं च त्रिविधं क्रमात् ॥८॥ (१९०) सम्बन्धिनोः सतोर्नास्ति निवृत्तिः सहजस्य तु । कर्मक्षयात् प्रबोधाश्च निवर्तन्ते क्रमादुभे ॥९॥ (१९१) अहंकारलये सुप्तौ भवेद्देहोऽप्यचेतनः । अहंकारविकासार्ध:स्वप्नः सर्वस्तु जागरः ॥१०॥ (दृग-दृश्य विवेक)
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