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________________ ३९४ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ग्रंथ में ( श्लोक ९५१ थी ९६४ तक) श्री शंकराचार्य बताते हैं कि- पूर्वोक्त अवस्थाओं के स्वरुप को सोचता हुआ मनुष्य सुखी होकर मुक्त होता हैं। शुभेच्छा आदि प्रथम की तीन ज्ञानभूमियों को भेदाभेदावाली कही हैं। उसमें व्यवस्थित (यथावद्) भेदबुद्धि जब होती हैं, तब उसके कारण यह जगत जाग्रत् अवस्थारुप कहा जाता हैं। परन्तु जब चौथी भूमिका का उतम योग होता हैं। और उसके कारण अद्वैत स्थिर होता हैं और द्वैत का शमन हो जाता हैं, तब उस भूमि पर आरुढ हुए योगी जगत को स्वप्न जैसा देखते हैं। उसके बाद पांचवी भूमि पर आरुढ होकर योगीपुरुष समग्र विशेष अंशो को शांत हुआ अनुभव करते हैं। और केवल अद्वैत स्वरुप में स्थिति करते हैं उसके बाद छठ्ठी भूमिका पर आरुढ हुए योगी नित्य अंतर्मुख ही रहता हैं, इसलिए जैसे अत्यंत थककर जैसे गहरी निद्रा में न पडा हो, ऐसा योगी लगता हैं। इस भूमि के सघन अभ्यास से योगी अच्छी तरह से वासना रहित होता हैं और बाद में सांतवी "तुरीया" भूमि के उपर आ जाता हैं। उसमें जो विदेह मुक्त होता हैं, उसको ही "तुरीयातीत दशा" कहते हैं आत्मा में दृश्य का लय करने की शैली : दृग् - दृश्य का भेद मिटाकर ज्ञाननिष्ठ बनने में सहायक ऐसा आत्मा में दृश्य का लय करने की शैली बताते हुए श्रीशंकराचार्य सर्ववेदांत-सिद्धांत सारसंग्रह में बताते हैं कि, "मैं देह नहीं हुँ, प्राण भी नहीं हुँ... इन्द्रियो का समुदाय भी नहीं हुँ..... अहंकार नहीं हुँ.... मन नहीं हैं और बुद्धि भी नहीं हु..... परंतु उनकी तथा उनके विकारो में साक्षी के रुप में रहनेवाला नित्य प्रत्यगात्मा ही हुँ। (८३५) ___ मैं वाणी का साक्षी, प्राण की वृत्ति का साक्षी, बुद्धि का साक्षी, बुद्धि की वृत्ति का साक्षी और चक्षु आदि इन्द्रियो का भी साक्षी हुँ, नित्य हुँ, प्रत्यगात्मा ही हुँ। (८३६) ___ मैं स्थूल नहीं हुँ, सूक्ष्म नहीं हुँ, लम्बा नहीं हुँ... छोटा (नाटा) नहीं हुँ... बालक नहीं, युवान नहीं और वृद्ध नहीं, वैसे ही मैं कानां नहीं हुँ.... गूंगा नहीं हुँ या नपुंसक नहीं हुँ... मैं तो साक्षी, नित्य और प्रत्यगात्मा ही हुँ। (८३७) __ मैं आवागमन करनेवाला नहीं हुँ.... मारनेवाला नहीं हुँ... कर्ता नहीं हुँ... प्रयोक्ता (जोडनेवाला) नहीं हुँ... वक्ता नहीं हुँ... भोक्ता नही हुँ... सुखी या दुःखी नहीं... मैं तो साक्षी-नित्य-प्रत्यगात्मा ही हुँ। (८३८) __ मैं योगी नहीं हुँ... वियोगी नहीं हुँ... रागी नहीं हुँ... क्रोधी नहीं हुँ... कामी और लोभी नहीं हुँ... बंधा हुआ नहीं हुँ... किसी के साथ जुडा हुआ नहीं हुँ या किसी से अलग नहीं हुआ हु... मैं तो साक्षी नित्य प्रत्यगात्मा ही हु। __ मैं अंदर के ज्ञानवाला या बाहर के ज्ञानवाला नहीं हुँ... प्रज्ञावान् नही हुँ या अज्ञानी नही हुँ... श्रोता नही हुँ या मनन करनेवाला नहीं हु... बोध पानेवाला भी नहीं हु... मैं तो साक्षी नित्य प्रत्यगात्मा ही हु । (८४०) ___ मन-देह-इन्द्रिय-बुद्धि के साथ मेरा कोई संबंध नहीं हैं.... मुझ में पुण्य या पाप का लेश भी नहीं हैं... क्षुधातृषा आदि छ: उर्मिओ से मैं दूर हु... सदा मुक्त हु और केवल चैतन्य स्वरुप ही हु। (८४१) मुझे हाथ-पैर-वाणी-चक्षु-प्राण-मन-बुद्धि कुछ भी नहीं हैं। मैं तो आकाश जैसा पूर्ण हुँ... निर्मल हुँ... सदा एकरुप हुँ और केवल चैतन्य स्वरुप ही हु । (८४२) ___ इस तरह से अपने आत्मा का दर्शन करते और बाहर दिखते सर्व दृश्य पदार्थों का लय करता ज्ञानी (शरीरादि को आत्मा मान (लेने रुप) विपरीत भावना का त्याग करता है, कि जो स्वाभाविक भ्रांति के वश से प्रतीत होती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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