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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन ब्रह्मानंद के भ्रम से जो सविकल्पक रुप आनंद का अनुभव होता हैं, उसे रसास्वाद कहा जाता हैं । अथवा निर्विकल्पक समाधि के प्रारंभ में जो सविकल्पक आनंद होता हैं, उसका परित्याग न करते हुए उसका ही आस्वाद लेना उसे रसास्वाद कहा जाता हैं । ये लय आदि चारो निर्विकल्पक समाधि के विघ्न हैं। ये चारो विघ्नों से रहित चित्त जब वायुरहित स्थान पे रहे हुए दीपक की तरह निश्चल एवं अखंड चैतन्यमात्र में स्थित होता हैं, तब निर्विकल्पक समाधि कही जाती हैं । ३९३ • ज्ञान की सात भूमिका :- भेदज्ञान की प्राप्ति से लेकर विदेहमुक्ति तक की अवस्था में श्री शंकराचार्य ने ज्ञान की सात भूमिकाओं का वर्णन किया हैं । उन सात (१८०) भूमिकाओं का निरुपण करते हुए सर्ववेदांत सिद्धांत सारसंग्रह नाम के ग्रंथ में कहा हैं कि, शुभेच्छा प्रथम, विचारणा दूसरी, तनुमानसी तीसरी, सत्त्वापति चौथी, असंसक्ति पांचवी, पदार्थभावना छठ्ठी, और तुर्यगा सातवी ज्ञानभूमि हैं । अब सातो भूमियों का स्वरुप (१८१) बताते हुए कहते हैं कि, "मैं मूढ ही क्यों रहा हुँ ?” “शास्त्र और सज्जन मेरे सामने देख रहे हैं।" ऐसी वैराग्यपूर्वक इच्छा हो, उसको विद्वान " शुभेच्छा" नाम की प्रथम ज्ञानभूमि कहते हैं। शास्त्रों और सज्जनों का संबंध करने से वैराग्य हो और उसके बाद अभ्यासपूर्वक सदाचार में जो प्रवृत्ति हो उसको 'विचारणा' नाम की दूसरी ज्ञानभूमि कही जाती हैं । पूर्वोक्त विचारणा और शुभेच्छा के योग से इन्द्रियो के विषयो के उपर राग न रहे (आसक्ति)न रहे और मन की स्थिति (उस विषयो के प्रति) पतली पड जाये, तब उसको तनुमानसी नामकी तीसरी ज्ञानभूमि कही जाती हैं। पूर्वोक्त तीनो भूमिकाओ के अभ्यास से चित्त में पदार्थो के उपर का वैराग्य प्राप्त होता है और उसके कारण वह शुद्ध सत्त्वगुण स्वरुप में बनी रहे, उसको 'सत्त्वापत्ति' नामकी चौथी ज्ञानभूमि कही जाती हैं। पूर्वोक्त चार प्रकार अभ्यास से जिसमें असंगतारुपी फल प्राप्त होता हैं और सत्त्वगुण का चमत्कार बहोत रुढ होता हैं। (जमता हैं।), वह " असंसक्ति" नाम की पांचवी ज्ञानभूमि हैं । पूर्वोक्त पांच भूमिकाओं के अभ्यास से अपने आत्मा में अतिशय रमणता होती हैं, बाह्य और अभ्यंतर पदार्थ मालूम नहीं होते हैं और दूसरा कोई मनुष्य जब बहोत प्रयत्न करे, तब ही बाह्य और अभ्यंतर पदार्थ मालूम होता है, वह " पदार्थभावना" नाम की छठ्ठी ज्ञानभूमि हैं । पूर्वोक्त छ: भूमिकाओ का दीर्घकालपर्यन्त अभ्यास करने से किसी भी प्रकार का भेद मालूम नहीं होता हैं और इसलिए केवल आत्मरुप में ही एकनिष्ठा प्राप्त होती हैं, वह " तुर्यगा" ("तुरीया' नामकी सप्तमी ज्ञानभूमि हैं । पूर्वोक्त ज्ञानभूमियों के उपर आरुढ हुए योगीयों की स्थिति बताते हुए सर्ववेदांत - सिद्धांत-सारसंग्रह (१८०) ज्ञानभूमि: शुभेच्छा स्यात्प्रथमा समुदीरिता । विचारणा द्वितीया तु तृतीया तनुमानसी ॥ ९३९ ॥ सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततोऽसंसक्तिनामिका । पदार्थभावना षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता ॥ ९४० ॥ (१८१) स्थित: किंमूढएवास्मि प्रेक्ष्योऽहं शास्त्रसज्जनैः । वैराग्यपूर्वमिच्छेति शुभेच्छा चोच्यते बुधैः ॥९४२॥ शास्त्रसज्जनसंपर्कवैराग्याभ्यासपूर्वकम् । सदाचारप्रवृत्तिर्या प्रोच्यते सा विचारणा ॥९४२॥ विचारणाशुभेच्छाभ्यामिन्दियार्थेष्वरक्तता । यत्र सा तनुतामेति प्रोच्यते तनुमानसी || ९४३ || भूमिकात्रितयाभ्यासाच्चित्तेऽर्थविरतेर्वशात् । सत्त्वात्मनि स्थिते शुद्धे सत्त्वापत्तिरुदाहृता ॥ ९४४ ॥ तथाचतुष्टयाभ्यासादसंसर्गफला तु या । रुढसत्त्वचमत्कारा प्रोक्तासंसक्तिनामिका ॥९४५॥ भूमिका पंचकाभ्यासात्स्वात्मारामतया भृशम् । आभ्यंतराणां बाह्यानां पदार्थानामभावनात् ॥९४६॥ परप्रयुक्तेन चिरप्रयत्नेनावबोधनम् । पदार्थभावना नाम षष्ठी भवति भूमिका ||९४७|| षड्भूमिकाचिराभ्यासाद्भेदस्यानुपलंभनात् यत्स्वभावैकनिष्ठत्वं सा ज्ञेया तुर्यगा गतिः ॥ ९४८॥ (स. वे.सा.सि.सं.) For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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