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________________ ३९२ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन दर्शन करने से उसको वश किया जा सकता हैं। और वही उत्तम प्रकार की धारणा हैं। (७) ध्यान :- "ब्रह्मैवास्मिमैं ब्रह्म ही हुँ" ऐसी सद्वृत्ति से निरालंबन (अर्थात् किसी भी वस्तु के आश्रय बिना) स्थिति करना, उसे "ध्यान" कहा जाता हैं। यही ध्यान परमानंद देनेवाला हैं। (८) समाधि :- निर्विकार और ब्रह्माकार वृत्ति होने के बाद उस वृत्ति को भी भूल जाना वही उत्तम "समाधि'' हैं। __यहाँ खास उल्लेखनीय हैं कि, पूर्वोक्त समाधि की जाती हैं, तब विघ्न भी बल से जरुर आते हैं। जैसे कि, बराबर एकाग्रता न हो, आलस्य हो, भोगो की लालसा हो, भय लगे, अज्ञान अंधार या तमोगुण फैल जाये, व्यग्रता अथवा व्याकुलता हो, मन जहाँ तहाँ जाता रहे। तेज की झलक दिखाई दे और शून्य जैसी स्थिति भी हो। ऐसे बहोत प्रकार के विघ्न आते हैं। वेदांतसार ग्रंथ में निर्विकल्प समाधि के चार विज बताये हैं । (१) लय, (२) विक्षेप (३) कषाय (४) रसास्वाद । लय की व्याख्या करते हुए कहा हैं कि, 'लयस्तावदखण्डवस्त्वनवलम्बेन चित्तवृत्तेर्निद्रा । अखंड वस्तु का (ब्रह्म का) अवलंबन न लेने के कारण जो चित्तवृत्ति की निद्रा हैं, उसे लय कहा जाता हैं। ___टीकाकार “लय'' की स्पष्टता करते हुए बताते हैं कि- "आलस्यवशाच्चित्तवृत्तिश्शब्दादिबाह्यविषयान् ग्रहीतुमुपेक्षमाणा तिष्ठति किन्त्वेवं कृते सति प्रत्यगात्मस्वरुपमपि नावभासतेऽतः सा नितरां निद्रिता सञ्जायते । अस्या दशाया नाम लयः । सचाद्वितीयवस्तुप्राप्तिविघ्नः ।" - आलस के कारण चित्तवृत्ति शब्दादि बाह्य विषयो को ग्रहण करने में उपेक्षित रहती हैं, परंतु ऐसा होने पर भी प्रत्यगात्मक स्वरुप भी अवभासित नहीं होता हैं। इसलिए चित्तवृत्ति बिलकुल निद्रित (निवृत्त) हो जाती हैं। इस दशा का नाम लय हैं। वह लय अद्वितीय (ब्रह्म) वस्तु की प्राप्ति में विघ्न हैं। विक्षेप की स्पष्टता करते हुए कहते हैं कि, __ अखण्डवस्त्ववलम्बनायान्तर्मुखीनापि चित्तवृत्तिर्यदा तदवलम्बनेऽसमर्था भवति तदा पुनर्बाह्यवस्तुग्रहणे प्रवर्तते । एष विक्षेपः । (वेदांतसार-टीका) अखंड वस्तु का ग्रहण करने के लिए जब चित्तवृत्ति अंतर्मुखी होती हैं, परंतु उसको प्राप्त नहीं कर सकती हैं, तब चित्तवृत्ति पुन: बाह्य वस्तुओ को ग्रहण करने में प्रवृत्त हो जाती हैं । उसको विक्षेप कहा जाता हैं। कषाय की स्पष्टता करते हुए कहते हैं कि, "लक्षविक्षेपरुपविघ्नाभावेऽप्युबुद्धरागादिवासनावशास्तब्धीभावमापन्नायाश्चित्तवृत्तेरद्वितीयवस्तुनोऽनवलम्बनं कषाय :।" - लय और विक्षेपरुप विघ्न न होने पर भी रागादि वासनावश चित्तवृत्ति स्तब्ध हो जाने के कारण अखंड वस्तु का अवलंबन न ले सके, उसे कषाय कहा जाता हैं। रसास्वाद विघ्न की स्पष्टता करते हुए कहा है कि, "अखण्डवस्त्ववलम्बनजन्यानन्दातिरेकाननुभवेऽप्यनिष्टबाह्यप्रपञ्चनिवृत्त्या ब्रह्मानन्दभ्रमेण यः सविकल्पकानन्दानुभवः स रसास्वादः । निर्विकल्पक समाध्या-रम्भकालेऽनुभूयमानो यः सविकल्पकाानन्दस्तदपरित्यागपूर्वकं पुनस्तस्यैवास्वादनं वा रसास्वादः।" -- अखंड वस्तु के आनंदातिरेक की प्राप्ति न होने पर भी अनिष्ट ऐसे बाह्य प्रपञ्च की निवृत्ति होने के कारण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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