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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
हैं और केवल पानी ही दिखता हैं, उसी तरह से अंत:करण की वृत्ति केवल ब्रह्मस्वरुप में ही रहती हैं, भिन्न नहीं लगती हैं। और केवल अद्वैत ब्रह्म ही प्रकाशित होता हैं ।
सारांश में जिसमें अन्त:करण की वृत्ति ज्ञाता आदि स्वरुप से होती हैं वह सविकल्प समाधि और जिसमें अंत:करण की वृत्ति ज्ञाता आदि स्वरुप से रहती ही नहीं हैं, वह निर्विकल्प समाधि कही जाती हैं - ऐसा उस समाधि में भेद वेदांतीओं ने माना हैं ।
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यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, समाधि और सुषुप्ति (१७७) के बीच अंतर हैं। क्योंकि, समाधि में ज्ञान होता हैं और सुषुप्ति में ज्ञान नहीं होता हैं, परन्तु अज्ञान ही होता हैं।
उपर्युक्त दोनों समाधि हृदय में रही हुए विपरीत भावना दूर करने के लिए मुमुक्षु को यत्नपूर्वक करनी चाहिए। इस समाधि के सेवन से देहादि के उपर की आत्मबुद्धि नष्ट हो जाती हैं, ज्ञान अस्खलित होता हैं और नित्य का आनंद सिद्ध होता हैं। (सर्व. वे.सि. सा. संग्रह - ८२८-८२९)
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निर्विकल्पक समाधि के अंग :- निर्विकल्पक समाधि को योगशास्त्रविद् "योग" भी कहते हैं। उस योग के यमादि आठ अंग हैं। (१७८) (१) यम :- “सर्व ब्रह्म हैं- सर्व ब्रह्म हैं" ऐसा ज्ञान होने से इन्द्रियो का संयम होता हैं, इसलिए उसे “यम" कहा जाता हैं। उसका बारबार अभ्यास करना । (यम के पांच प्रकार हैं (१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) ब्रह्मचर्य और (५) अपरिग्रह ।) परपीडा के वर्जन को अहिंसा कहा जाता हैं। (हिंसा समाधि में बाधक बनती हैं । इसलिए उसका त्याग करे) सत्य वचन बोलना । (असत्य समाधि के अनुष्ठान अंतरायभूत हैं। इसलिए त्याग।) दूसरे ने न दी हुई वस्तु ग्रहण न करना वह अस्तेय यम हैं। (चौर्यवृत्ति से समाधिभाव प्राप्त नहीं हो सकता हैं, इसलिए उसका त्याग ।) (१७९) आठ प्रकार के मैथुन का त्याग करना उसे ब्रह्मचर्य कहा जाता हैं। (बहिर्भाव में ले जानेवाला मैथुन समाधि में महा अंतरायभूत होने से उसका त्याग करना होता हैं।) अपरिग्रह (समाधि के अनुष्ठान में निरुपयोगी वस्तुओं का संग्रह न करना वह ।) (२) नियम :- सजातीय (आत्मचिंतन) का प्रवाह चालू रखना और विजातीय देहादि का तिरस्कार करना (अर्थात् आत्मस्वरुप में लय करना ।) यही परमानंद रुप “नियम” हैं। (उसे भी ज्ञानीओं को अवश्य सेवन करना चाहिए ।) शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान ये पांच नियम हैं । ( ३ ) आसन :- जिस स्थिति में निरंतर सुखपूर्वक ब्रह्मचिंतन हो सके, उसको ही "आसन" कहा जाता हैं। बाकी के आसन तो सुख का नाश करनेवाले हैं। ( ४ ) प्राणायाम :- चित्त आदि सर्व पदार्थों में ब्रह्मत्व की भावना करने से सर्ववृत्तियों का विरोध हो जाता हैं । इसलिए वही "प्राणायाम" कहा जाता हैं। उसमें प्रपंच का ब्रह्मस्वरुप में से निषेध करना, वह "रेचक" नामका प्राणायाम हैं। "मैं ब्रह्म ही हूँ" ऐसी जो वृत्ति वह ‘“पूरक" प्राणायाम हैं और उस वृत्ति की निश्चलता होना, वह "कुंभक” प्राणायाम हैं। बाकी श्वासोच्छवास भरना, रोकना और निकालना, यह तो अज्ञानीओं का प्राणायाम हैं । (५) प्रत्याहार :- विषयों के उपर की आत्मभावना को छोडकर मन का चैतन्य आत्मस्वरुप में मग्न रहना उसको "प्रत्याहार" कहा जाता हैं। मुमुक्षु इसका भी बारबार अभ्यास करे । ( ६ ) धारणा :- मन जहाँ जहाँ जाता रहे वहाँ वहाँ केवल ब्रह्म का ही
( १७७ ) सर्व.वे.सि.सा.संग्रह - श्लोक - ८२७-८२८ देखिए । ( १७८ ) योग के आठ अंग का स्वरुप सर्ववेदांत-सिद्धांत सार संग्रह ग्रंथ में से देखना और प्रत्येक अंग के प्रतिभेद वेदांतसार- पंचम अध्यास जानना । (१७९) स्मरणं दर्शनं स्त्रीणां गुणकर्मानुकीर्तनम् । समीचीनत्वधीस्तासु प्रीतिः संभाषणं मिथः ॥ १०९॥ सहवासश्च संसर्गोऽष्टधा मैथुनं विदुः । एतद्विलक्षं ब्रह्मचर्यं चित्तप्रसादकम् ॥११०॥ (सं.वे.सि.सा.सं.)
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