________________
३९०
षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
विषय को सिद्ध करने में तत् तत् स्थान पे सुनने में आती युक्ति वह 'उपपत्ति ( १६९) हैं। इस तरह से श्रवण के छ: अंग हैं।
(२) मनन :- श्रवण करने में आती अद्वितीय वस्तु का वेदांत की अनुकूल युक्तियों से सतत चिंतन करना उसे 'मनन' कहा जाता हैं । (१७०)
(३) निदिध्यासन:- आत्मतत्त्व से विजातीय देह आदि के भान से रहित अद्वितीय वस्तु के सजातीय ज्ञानप्रवाह को 'निदिध्यासन' कहा जाता हैं। (१७१) अर्थात् जब अधिकारी पुरुष का ज्ञान आत्मभिन्न सभी (विजातीय) पदार्थो =भावो से दूर होकर आत्मा में केन्द्रित हो जाता हैं और उस प्रकार का ज्ञान निरंतर बहा करता हैं, उसको निदिध्यासन कहा जाता हैं।
(४) समाधि :- चित्त जब विजातीय विषयो में से दूर होकर सजातीय विषयो में एकाग्र हो - समाहित हो उस स्थिति को "समाधि' कहते हैं। वेदांतसार की सुबोधिनी टीका के अनुसार "व्युत्थान और संस्कारों का क्रमशः तिरोभाव और आविर्भाव होने से चित्त का एकाग्रतारुप परिणाम वह समाधि हैं । वेदांतसार की विद्वन्मनोरंजनी टीका के अनुसार, "ज्ञेय आत्मा की दृष्टि से चित्त की निश्चल स्थिति वह समाधि ।(१७२)
समाधि के दो प्रकार है : (१७३) (१) सविकल्पक समाधि और (२) निर्विकल्पक समाधि ।
सविकल्पक समाधि :- ज्ञान आदि का नाश हुए बिना ही ज्ञेय अद्वैत ब्रह्म में चित्तवृत्ति तदाकार स्वरुप में जो रहे, उसको ही सत्पुरुष सविकल्पक समाधि कहते हैं । (१७४) जैसे, "मिट्टी का हाथी मिट्टी ही हैं। “ऐसा ज्ञान होने पर भी उस ज्ञान के साथ मिट्टी का हाथी भी मालूम हो वैसे "जगत के प्रत्येक पदार्थ ब्रह्म ही हैं।" ऐसा ज्ञान होने पर भी उस ज्ञान के साथ ज्ञाता ज्ञेय ज्ञान ये त्रिपुटी भी ब्रह्मस्वरुप से उसमें मालूम होती हैं (परंतु उस त्रिपुटी का ब्रह्मस्वरुप से बिलकुल विलय हो गया नहीं होता हैं।) इसलिए ही ऐसी समाधि "सविकल्पक" कही जाती हैं।
सविकल्यसमाधि के दो भेद (१७५):- दृश्य पदार्थो के संबंधवाली समाधि को "दृश्यानुविद्ध" समाधि कहा जाता हैं और शब्द के संबंधवाली समाधि को “शब्दानुविद्ध" समाधि कहा जाता हैं।
निर्विकल्प समाधि( १७६) :- जिसमें ज्ञाता- ज्ञेय -ज्ञान यह त्रिपुटीभाव बिलकुल छूट जाये और केवल ज्ञेयस्वरुप में ही मन की दृढस्थिति हो जाये, उसे "निर्विकल्प समाधि" कही जाती हैं। उसको "योग" भी कहा जाता हैं। जैसे पानी में डाला हुआ नमक केवल जलरुप में ही रहा हुआ होता हैं, जल से भिन्न मालूम नही होता
(१६९) प्रकरणप्रतिपाद्यार्थसाधने तत्र श्रूयमाणा युक्तिरुपपत्तिः । वे.सा-१८४ (१७०) मननं तु श्रुतस्याद्वितीयवस्तुनो वेदान्तानुगुणयुक्तिभिरनवरतमनुचिन्तनम् वे.सा.१८५ । (१७१) विजातीयदेहादिप्रत्ययरहिताद्वितीयवस्तुसजातीय प्रत्ययप्रवाहो निदिध्यासनम् । (वे.सा. १८६) (१७२) चितस्य ज्ञेयात्मना निश्चलावस्थानं समाधिः (वे.सा.टीका)। (१७३ ) समाधिर्द्विविधः सविकल्पको निर्विकल्पकञ्चेति । (वे.सा. १८७)(१७४) ज्ञानाद्यविलयेनैव ज्ञेये ब्रह्मणि केवले । तदाकाराकारितया चित्तवृत्तेरवस्थितिः ॥८२०।। सद्भिः स एव विज्ञेयः समाधिः सविकल्पकः । मृद एवावभानेऽपि मुन्मयद्विपभानवत् ।।८२१॥ सन्मात्रवस्तुभानेऽपि त्रिपुटी भाती सन्मयी। समाधिरत एवायं सविकल्प इतीर्यते ॥८२२।। (स.वे.सि.सा.सं.) (१७५) सविकल्पसमाधि के दोनो भेदो का विशेष वर्णन सर्ववेदांत-सिद्धांत-सारसंग्रह ग्रंथ से देख लेना । दृश्यानुविद्धः शब्दानुविद्धश्चेति द्विधा मत॥ ८२९- उत्तरार्ध:) (१७६) ज्ञात्रादिभावमुत्सृज्य ज्ञेयमात्रस्थितिर्दृढा । मनसा निर्विकल्पः स्यात्समाधिर्योगसंज्ञितः ॥८२३।। जले निक्षिप्तलक्षणं जलमात्रतया स्थितम्। पृथङ् न भाति किं त्वंभ एकमेवावभासते ।।८२४|| यथा तथैव सा वृत्तिर्ब्रहममात्रतया स्थिता पृथङ् न भाति ब्रह्मवाद्वितीयमवभासते ॥८२५।। ज्ञात्रादिकल्पनाभावान्मतोऽयं निर्विकल्पकः । वृत्तेः सद्भावबाधाभ्यामुभयोर्भेद इष्यते ॥८२६।। (स.वे.सि.सा.संग्रह)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org