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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
"समाधान" कहा जाता हैं। (स.वे.सि.सा.सं.२१८) विद्वान पुरुष "ब्रह्म और आत्मा एक हैं।" ऐसे अनुभवज्ञान से संसाररुप पाश का बंधन तोड डालना चाहता हैं, वह " मुमुक्षुत्व" हैं । (१६०)
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चार साधनो का आंशिक स्वरुप देखा । उपर्युक्त चार साधन से संपन्न आत्मा श्रवणादि अनुष्ठान में तत्पर बने तब ब्रह्म साक्षात्कार होता हैं । ब्रह्मसाक्षात्कार या जिसका दूसरा नाम आत्मसाक्षात्कार हैं, उसके साधन बताते हुए वेदांतसार- पञ्चम अध्याय में बताया हैं कि- "इस तरह से अपने में रहे हुए स्वरुप चैतन्य का साक्षात्कार हो वहाँ तक (अर्थात् ब्रह्मसाक्षात्कार न हो तब तक) श्रवण, मनन, निदिध्यासन और समाधि यह चार अनुष्ठान की अपेक्षा हैं और इसलिए अब उन चारो अनुष्ठानो का स्वरुप बताया जाता हैं |(१६१)
( १ ) श्रवण :- - यहाँ श्रवण अर्थात् केवल सुनने के अर्थ में प्रयोजित नहीं हुआ हैं । परंतु छ: लिंगो द्वारा समस्त वेदांत वाक्यो का अद्वितीय वस्तु (ब्रह्म) में तात्पर्य निर्णय करना उसे 'श्रवण' कहा जाता हैं । (१६२)
उपक्रम, उपसंहार, अभ्यास, अपूर्वता, फल, अर्थवाद और उपपत्ति : ये ( १६३) श्रवण के लिंग हैं । उसमें प्रकरण में प्रतिपाद्य अर्थ के (विषय के) आद्यन्त का =आदि और अंत का उपपादान करना वह क्रमश: उपक्रम और उपसंहार (१६४) हैं। जैसे कि, छांदोग्य उपनिषद् के छठे अध्याय में प्रतिपादित होनेवाले विषय (ब्रह्म) का एकमेवाद्वितीयम् (६.२.१) इस तरह से आरंभ में और "ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्' (६.८.७) इस प्रकार अंत में प्रतिपादन आता हैं। प्रकरण में प्रतिपादित करने में आनेवाले विषय का प्रकरण में बीच बीच में पुनः पुनः प्रतिपादन करना वह अभ्यास (१६५) हैं। जैसे कि उसमें ही अद्वितीय वस्तु (ब्रह्म) का बीच बीचमें "तत्त्वमसि' इस तरह से नौ बार प्रतिपादन किया गया हैं । प्रकरण में प्रतिपाद्य अद्वितीय वस्तु को (ब्रह्म को) अन्य प्रमाण का विषय न बनाना वह‘“अपूर्वता” हैं।(१६६) ( वेदांती और मीमांसक वेद में निरुपति विषयो को प्रत्यक्ष या अनुमेय नहीं मानते हैं, केवल वह श्रुतिगम्य हैं ऐसा उनका मत हैं। इसलिए वेदवचन अपूर्व हैं ।) जैसे कि, उस छांदोग्योपनिषद् में ही अद्वितीय ब्रह्म को अन्य प्रमाणो का विषय नहीं बनाया हैं। प्रकरण में प्रतिपाद्य आत्मज्ञान और उसके वास्ते
अनुष्ठान का स्थान स्थान पे सुना जाता (वर्णन किया जाता ) प्रयोजन वह " फल" हैं। (१६७) जैसे की उसी ग्रंथ में आचार्य से युक्त पुरुष आत्मा को जानता हैं, उसके लिए जब तक वह (शरीर के संबंध से) मुक्त नहीं हैं तब तक ही दैरी हैं, उसके बाद वह (ब्रह्मभाव को ) प्राप्त कर लेता हैं। (छा.उ.६.१४.२) इस वाक्य में अद्वितीय वस्तु के ज्ञान का “ब्रह्मप्राप्ति” प्रयोजन (फल) बताया हैं
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प्रकरण में प्रतिपाद्य विषय के स्थान-स्थान पे प्रशंसा करना वह " अर्थवाद" हैं । (१६८) और प्रकरण में प्रतिपाद्य
( १६० ) ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानाद्यद्विद्वान्मोक्तुमिच्छति संसारपाशबन्धं तन्मुमुक्षुत्वं निगद्यते ॥ २२६॥ ( स.वे.सि. सा. संग्रह ) (१६१ ) एवं स्वभूतस्वरुपचैतन्यसाक्षात्कारपर्यन्तं श्रवणमनननिदिध्यासनसमाध्यनुष्ठानस्यापेक्षित्वात्तेऽपि प्रदर्श्यन्ते । ( वेदांतसार - १७६ ) (१६२) श्रवणं नाम षड्विधलिङ् गैरशेषवेदान्तानामद्वितीये वस्तुनि तात्पर्यावधारणम् । (वे.सा. १७७ ) (१६३) लिङ्गानि तूपक्रमोपसंहाराभ्यासापूर्वताफलार्थवादोपपत्त्याख्यानि । (वे.सा. १७८ ) ( १६४ ) तत्र प्रकरणप्रतिपाद्यस्यार्थस्य तदाद्यन्तयोरुपपादनमुपक्रमोपसंहारौ । यथा छान्दोग्ये षष्ठाध्याये प्रकरणप्रतिपाद्यस्याद्वितीयवस्तुनः "एकमेवाद्वितीयम्" इत्यादौ " ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्” इत्यन्ते च प्रतिपादनम् । (वे.सा. - १७९) (१६५ ) प्रकरणप्रतिपाद्यस्य वस्तुनस्तन्मध्ये पौनः पुन्येन प्रतिपादनमभ्यासः । यथा तत्रैवाद्वितीयवस्तुनो मध्ये तत्त्वमसीति नवकृत्वः प्रतिपादनम् । (वे.सा. १८० ) (१६६) प्रकरणप्रतिपाद्यस्याद्वितीयवस्तुनः प्रमाणान्तराविषयीकरणमपूर्वता । यथा तत्रैवाद्वितीयवस्तुनो मानान्तराविषयीकरणम् । ( वै.सा. १८१ ) (१६७ ) फलं तु प्रकरणप्रतिपाद्यस्यात्मज्ञानस्य तदनुष्ठानस्य वा तत्र तत्र श्रूयमाणं प्रयोजनम् । यथा तत्र "आचार्यवान् पुरुषो वेद तस्य तावदेव वारं यावन्न विमोक्ष्येऽथसम्पत्स्ये” इत्यद्वितीयवस्तुज्ञानस्य तत्प्राप्तिः प्रयोजनं श्रूयते । (वे.सा. १८२) (१६८ ) प्रकरणप्रतिपाद्यस्य तत्र तत्र प्रशंसनमर्थवादः ।
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