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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
आलोक और परलोक के विषय सुख अनित्य हैं, ऐसा निश्चय होने से उसके उपर तुच्छ बुद्धि उत्पन्न होती हैं, उसके योग से उस विषय सुखो के उपर से स्पृहा नष्ट हो जाती हैं, उसको "वैराग्य" कहा जाता हैं । (१५८) ।
शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा और समाधान : इस छ को शमादि षट्संपत्ति कहा जाता हैं। जिसमें मन लगातार वृत्ति से अपने लक्ष्य में नियमित स्थिति करे, उसको "शम' कहा जाता हैं। यह शम तीन प्रकार का हैं। (१) अपने विकारो को छोडकर मन,मात्र (आत्मरुप) वस्तु स्वरुप में ही स्थिति करे वह मन का "उत्तम शम" हैं, उसको ही "ब्रह्मनिर्वाण" कहा जाता हैं । (२) बुद्धि, केवल आत्मा के अनुभव की परंपरा का प्रवाह करे, वह "मध्यम शम" हैं और उसको ही "शुद्धसत्त्व" कहा जाता हैं । (३) विषय का व्यापार छोडकर मन केवल (वेदांत का) श्रवण करने में ही स्थिर हो, वह मन का "जघन्यशम" हैं और उसको 'मिश्रशम' कहा जाता हैं। (सर्ववेदांत-सिद्धांत-सार संग्रह ९४ से९९) पूर्व के और उत्तर के अंग हो, तो ही "शम' सिद्ध होता हैं। तीव्र वैराग्य यह पूर्व का अंग हैं और दम इत्यादि उत्तर के अंग हैं। वैसे ही काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर : इस छः को जिसने जीता नहीं हो उसको शम सिद्ध नहीं होता हैं । (स.वे.सि.सा.सं- १००-१०१)
तदुपरांत ब्रह्मचर्य, अहिंसा, प्राणीयों की दया, सरलता, विषयो में अनासक्ति, बाह्य-अभ्यंतर पवित्रता, दंभत्याग, सत्य, ममत्वत्याग, स्थिरता, अभिमान त्याग, ईश्वर के ध्यान में तत्परता, ब्रह्मज्ञानीयों के साथ सहवास, ज्ञानमय शास्त्रों में परायणता, सुख-दुःख में समता, मान के उपर अनासक्ति, एकांतशीलता और ममक्षता : ये गण जिनमें होते हैं. उसका चित्त निर्मल बनता हैं, ये गुणो के सिवा अन्य करोडो उपायो से भी मन निर्मल नहीं बनता हैं । (सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह-१०५ थी१०८) ___ पूर्वोक्त ब्रह्मचर्य आदि धर्मों के द्वारा बुद्धि के दोष दूर करने के लिए जो दंड लेना (शिक्षा सहन करना ) उसको "दम'' कहा जाता हैं । तत् तत् वृत्तियों को रोककर निरोध करके बाह्येन्द्रियों को वश करना उसे "दम'' कहा जाता हैं, जो मन की शांति (शम) का साधन हैं । (सर्व. वे. सि.सा.सं)
प्रारब्ध कर्म के वेग से आध्यात्मिक आदि जो दुःख प्राप्त हुए हो, उसका विचार किये बिना उसको सहन करना उसको “तितिक्षा" कहा जाता हैं । (सर्व-वे.सि.सा. संग्रह)
साधनरुप में दिखाई देते सर्व (नित्य नैमित्तिकादि) कर्मो का विधिपर्वक त्याग करना उसको सज्जनो ने संन्यास माना हैं, वह संन्यास ही कर्मो को बंध करवाता हैं, इसलिए 'उपरति' कहा जाता हैं । वेद भी कहता हैं कि, "सर्वविरुद्ध कर्मो का त्याग वही संन्यास(१५९) हैं। (स.वे.सि.सा.संग्रह १५१-१५२)
गुरु और वेदांत के वाक्यों के उपर "यह सत्य ही हैं" ऐसे निश्चयवाली बुद्धि उसे "श्रद्धा" कहा जाता हैं। यह श्रद्धा मुक्ति की सिद्धि में प्रथम कारण हैं । (स.वे.सि.सा.संग्रह २१०)
वेदमें कहे हुए अर्थ को जानने के लिए विद्वान पुरुष ज्ञेय वस्तु में चित्त अच्छी तरह से स्थापित करे, उसे __ (१५८) ऐहिकामुष्मिकार्थेषु ह्यनित्यत्वेन निश्चयात्। नै:स्पृह्यं तुच्छबुद्धया यत्तद्वैराग्यमितीर्यते ।।२२।। (१५९) वेद में कहा जाता हैं कि, कर्म से सिद्ध होते सर्व पदार्थ अनित्य हैं, तो नित्यफल चाहते और परमार्थ के साथ ही संबंधवाले पुरुष को ऐसी कर्मो की क्या आवश्यकता हैं ? (१) उत्पाद्य (उत्पत्ति के योग्य) (२) आप्य (पाने योग्य) (३)संस्कार्य (संस्कार के योग्य) (४) विकार्य (विकार के योग्य): इस चार प्रकार के कर्म द्वारा सिद्ध होने से फल माना जाता हैं। इसके अतिरिक्त कर्म का दूसरा कोइ फल नहीं हैं । ब्रह्म तो स्वतः सिद्ध सभी काल में प्राप्त, शुद्ध, निर्मल और निष्क्रिय हैं, इसलिए उपर्युक्त चार कर्मफल में से एक भी रुप, हो वह योग्य नहीं हैं। (सर्व.वे.सि.सा.सं.१५३-१५४-१५५)
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