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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ३८७ कोई क्षति नहीं । (१५४ वह कल्पित गुरु शिष्यो को इस प्रकार उपदेश करता हैं, जैसे बच्चे जल में चन्द्रमा को देखकर आकाशस्थ चन्द्रमा का ज्ञान प्राप्त करते हैं ।(१५५) अर्थात् वृद्धजन जिस प्रकार शिशुओं के लिए जलचन्द्र का निषेध कर आकाशचन्द्र सच्चन्द्र हैं, ऐसा उपदेश देते हैं । अतः उपदेष्टा को आधार मानकर जीवन्मुक्ति की व्याख्या करना शास्त्र विरुद्ध हैं । मुक्तावस्था में शास्त्राचार्यों के प्रसादो से प्रसादित आराधक, महावाक्योत्थ ज्ञान से ब्रह्म का साक्षात्कार कर प्रतिबन्धक अज्ञान और उसके समस्त कार्यो का विनाश कर तथा नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव अद्वयानन्द “मैं ही हूँ" ऐसा आत्मा का बोध प्राप्त करके, कृतकृत्य हो जाता हैं । ___ यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, योगदर्शन के प्रणेता श्रीपंतजली ऋषि भी पूर्वोक्त मुक्ति के दो प्रकारो को मानते हैं। संप्रज्ञात योग से जीवन्मुक्ति और असंप्रज्ञातयोग से विदेहमुक्ति प्राप्त होती हैं, ऐसा अपने पातंजलयोग सूत्र में वे बताते हैं । (इस विषय की चर्चा 'योगदर्शन' विषयक परिशिष्ट में देखने के लिए परामर्श हैं ।) जैनदर्शन भी मुक्ति की ये दो अवस्थाओ को अपेक्षा से स्वीकार करता हैं। सांख्यदर्शन भी मुक्ति के दो प्रकार की परिकल्पना को अलग दृष्टिकोण से स्वीकार करता हैं । __ दूसरी एक बात लक्ष्य में ले कि, वेदांतमत अनुसार तो आत्मा नित्यमुक्त हैं, इसलिए मुक्ति कोई उत्पन्न होती वस्तु नहीं हैं। ऐसा होते हुए भी संसार में पड़ा हुआ जीव अज्ञान से अपना विशुद्ध स्वरुप भूल गया होता हैं और संसार की भिन्न-भिन्न अवस्थायें तथा बंधनों से अपने आपको बद्ध समजता हैं। उसको यही बंधन होता हैं। और वह बंधन अज्ञान या अविद्या से उत्पन्न हुआ हैं। अविद्या दूर होने से तुरंत आत्मा बंधन से मुक्त हो जाता हैं और तब जीव को स्वयं को मुक्त होने का अनुभव होता हैं। • ब्रह्मसाक्षात्कार के साधन :- ज्ञान से अज्ञान का नाश होता हैं और उससे आत्मा की मुक्ति होती हैं। ज्ञानप्राप्ति का अर्थ ब्रह्म के विषय में केवल शाब्दिक ज्ञान प्राप्त होना वह नहीं हैं। ब्रह्म के स्वरुप के विषय में विस्तृत परिचय पाना उसके लिए अनेक ग्रंथो का अवगाहन करना और ब्रह्म के विषय में प्रवचन देना, इत्यादि ब्रह्म विषय आयाम एक दूसरी चीज हैं और ब्रह्मानुभव या ब्रह्मसाक्षात्कार करना यह बात अलग हैं। सारे भेद मिट जाये और "मैं ब्रह्म हुँ" ऐसा अभेदभाव सिद्ध हो उसको ब्रह्मानुभव या ब्रह्म साक्षात्कार कहा जाता हैं। उस अवस्थान तक पहुंचने के लिए कठिन साधना करनी पडती हैं। सबसे प्रथम तो ज्ञानप्राप्ति के लिए श्रवणादि चार अनुष्ठान का दीर्घकाल पर्यन्त सेवन करना पडता हैं । श्रवणादि करने से पहले उसकी योग्यता के चार साधन प्राप्त करने पडते हैं। चार साधना १५६) :- वेदांत में ज्ञानप्राप्ति के चार साधन बताये हैं। वे हो तो ही मुक्ति प्राप्त होती हैं, अन्यथा मुक्ति प्राप्त नहीं होती हैं। वे साधन इस प्रकार हैं - (१) नित्यानित्यवस्तु का विवेक, (२) आलोक-परलोक के विषय-भोगों के उपर वैराग्य, (३)शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा और समाधान : ये छ: की संपत्ति (प्राप्ति) और (४) मुमुक्षुता=मोक्ष का अर्थीत्व । "ब्रह्म ही नित्य हैं, उसके सिवा अन्य अनित्य हैं" ऐसी समज को नित्यानित्य का "विवेक" कहा जाता हैं । १५७) (१५४) कल्पितोऽप्युपदेष्टा स्याद्यथाशास्त्र समादिशेत् न चाविनिगमो दोषोऽविद्यावत्वेन निर्णयात्।-वे.सि.मु.का ४२। कल्पितेन गुरुणा विद्योत्पत्तिसम्भवात् नानुपपत्तिकाचित् । वही. पृ. ४२ (१५५) शास्त्रवदुपपत्तेः प्रतिबिम्बवच्च । वही. (१५६) चत्वारि साधनान्यत्र वदन्ति परमर्षयः । मुक्तिर्येषां नु सद्भावे नाभावे सिध्यति ध्रुवम् ॥१३।। आद्यं नित्यानित्यवस्तुविवेकः साधनं मतम् । इहामुत्रार्थफल-भोगविरागो द्वितीयकम् ॥१५।। शमादिषट्संपत्तिस्तुतीयं साधनं मतम् । तुरीयं तु मुमुक्षुत्वं साधनं शास्त्रसंमतम् ॥१५॥ (सर्ववेदांत-सिद्धांत-सार संग्रह)(१५७) ब्रह्मैव नित्यमन्येत्तु ह्यनित्यमिति वेदनम्। सोऽयं नित्यानित्यवस्तुविवेक इति कथ्यते॥१६|| Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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