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________________ ३८६ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन हैं, १४९) क्योंकि शास्त्रों का प्रयोजन, जीवन्मुक्ति का प्रतिपादन करना हैं। ___श्री प्रकाशानन्द, इसका उत्तर इस प्रकार देते हैं कि, यदि जीवन्मुक्त की स्थिति मानते हैं, तो ज्ञानोत्तरक्षण में कर्म की स्थिति भी माननी पडेगी, क्योंकि कर्म के बिना देहस्थिति संभव नहीं हैं और मोक्ष में कर्म का लेश भी संभव नहीं हैं, क्योंकि उभे इहैव, एषते तरति, भिद्यते हृदयग्रन्थि, ज्ञानाग्नि-सर्वकर्माणि' इत्यादि श्रुतिस्मृतियाँ कर्म की कल्पना का विरोध करती हैं। "(१५०अतएव जीवन्मुक्ति सम्भव नहीं हैं, क्योंकि शास्त्रो का उद्देश्य इसका प्रतिपादन करना नहीं हैं ।(१५१) अपितु मोक्ष के स्वरुप का प्रतिपादन करना हैं। अब यहाँ पुनः शंका करते हैं कि, शास्त्रो में मुमुक्षुओं के श्रवण और मननादियों की वृत्ति के वर्णन का अर्थ क्या हैं ? इसका उत्तर देते हैं कि, वह तो अर्थवाद हैं, जिसका प्रयोजन मात्र अध्ययनविधि में प्रवृत कराना हैं(१५२)। फिर लौकिक एवं वैदिक प्रमाणो के अभाव में ज्ञानी के शरीर की स्थिति बनी नही रह सकती हैं, इस स्थल में यदि तीर की गति के साथ दृष्टान्त देकर प्रारब्ध की सिद्धि करे, तो भी अयुक्त होगा, क्योंकि तीर जो गति का उपादान हैं, वह विद्यमान ही रहता हैं, पर मुक्ति में प्रारब्ध का उपादान अविद्या पहले ही समाप्त हो जाती हैं। अतएव यह दृष्टान्त असंगत हैं । (१५३) बाण का प्रक्षेपण धनुष की प्रत्यंचा से होता हैं, जितनी शक्ति से प्रत्यंचा खींचकर बाण छोडा जायेगा, उतनी ही दूरी पर, बाण जा गिरेगा। प्रत्यंचा से छूटने पर बाण की गति, प्रत्यंचा के प्रक्षेपण संस्कार से चलती रहती हैं, बाण की गति में धनुषादि कारण नहीं होते। उसी प्रकार ज्ञानी को ज्ञान हो जाने पर बाणगति सदृश यह शरीर बना रह सकता हैं। इसका उत्तर आचार्यप्रवर श्रीमंडनमिश्र ने दिया हैं कि, जिस प्रकार बाण छूटने पर प्रस्तरादियों के बीच में आ जाने के कारण बाण रास्ते में ही रुक जाता हैं, अपने गन्तव्य तक नहीं पहुँचता क्योंकि प्रस्तरादि बाधक तत्त्व, उसे बाधित कर उसकी गति को समाप्त कर देते हैं। उसी प्रकार ज्ञानोदय हो जाने पर समस्त बाधक तत्त्व अज्ञानादि अपने कारण सहित विलीन हो जाते हैं, और वहाँ सद्य शरीर के सम्पात के अनन्तर मुक्ति मिलती हैं। __ जीवन्मुक्ति के सम्बन्ध में जो लौकिक कथन हैं, वह अन्ध परंपरा का प्रतीक हैं । गुरु "तत्त्वमसि' इत्यादि महावाक्यों से जो उपदेश देता हैं, उसका प्रयोजन मात्र गुरुवाक्यों या महावाक्यो में विश्वास उत्पन्न करना हैं। अतः विद्या के द्वारा जब अविद्या का उपमर्दन हो जाता हैं तब सद्योमुक्ति होती हैं, यही मत सर्वथा दोषरहित एवं ग्राह्य हैं। यहाँ एक शंका ओर उपस्थित होती हैं कि, उपदेष्टा के अभाव में विद्या की उत्पत्ति फिर कैसे होगी ? कहीं भी आचार्य ने निरपेक्षा विद्या का उपदेश नहीं किया हैं। "आचार्यवान् पुरुषोवेद (छा. उ. ६. १४), नैषातर्केणमतिरापनीया (क.उ. १. ९.९.१.३.१४) प्राप्य वरान्निबोधत आचार्यस्ते गति वक्ति (छा.उ.४.१४) इत्यादि श्रुतियों में ज्ञानीगुरु का वर्णन उपलब्ध होता हैं । जीवन्मुक्त के अभाव में ज्ञानी उपदेष्टा की स्थिति अस्वीकृत हो जायेगी, तब गुरु के द्वारा उपदिष्ट ज्ञान भी असत्य हो जायेगा और श्रुतिवाक्य अनर्थक हो जायेगा। अतः जीवन्मुक्त का सिद्धान्त श्रुति को अभिष्ट हैं। इसका समाधान देते हैं कि, वस्तुतः गुरु तो वेदादि शास्त्रो में वर्णित विषय का ही प्रतिपादन करता हैं । स्वयं गुरु पारमार्थिक सत्य का द्रष्टा नहीं होता, तथापि कल्पित गुरु ही सही यदि उससे विद्या की उत्पत्ति होती हैं, तो (१५०) इतिश्रुतिस्मृतिविरोधात्कल्पनमनुपपन्नम् इति । वे. सि. मु. जीवानन्दटीका पृ.२३२ (१५१) शास्त्रस्य जीवन्मुक्तिप्रतिपादने प्रयोजनाभावात्। वें. सि. मु. पृ. १३९(१५२) मुमुक्षुणां श्रवणादौ प्रवृत्तिप्रयोजनमिति चेत्? अस्तु तहि श्रवणादिविधेरर्थवादस्तच्छास्त्रम्।- वे.सि.मु.पृ. १४०(१५३) न च मुक्तेषु दृष्टान्तेन प्रारब्धस्थितिसाधितेति वाच्यम् दृष्टान्तेवैषम्यात् । - वही. पृ. १४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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