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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ३८५ उपमर्दन कर देती हैं, यह सिद्धांत खण्डित हो जायेगा(१४४) यदि यह स्वीकार करे कि आवरणशक्तिप्रधानाज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर विक्षेपप्रधान-अज्ञान, प्रारब्ध के निर्वाह के लिए जीवन का अनुवर्तन करता हैं, तो भी अयुक्त होगा, क्योंकि तब दो अज्ञान मानने पडेंगे ।(१४५) जब कि, श्रीप्रकाशानन्द को एक ही अज्ञान अभीष्ट हैं । एक ही अज्ञान की दो शक्तियों को मानने पर तो एक वस्तु में युगपत् दो शक्तियाँ माननी पडेगी, जो विरुद्धस्वभाव होने के कारण सम्भव नहीं हैं। ___ यदि शक्ति और शक्तिमान में भेद करके दो शक्तिर्यां स्वीकार करेंगे तो भी, अद्वैत क्षेत्र में अभेद सम्बन्ध होने के कारण, अनुपयुक्त होगा, क्योंकि भेदस्थिति में अविद्या की निवृत्ति नहीं होगी। यदि प्रारब्ध कर्म की निवृत्ति से अज्ञान की निवृत्ति माने तो ऐसा कोई शास्त्रप्रमाण उपलब्ध नहीं हैं (१४६) अपितु एक ओर अव्यवस्था उत्पन्न होगी कि मोक्ष के लिए तब ज्ञान की अपेक्षा न होकर प्रारब्ध की अपेक्षा हो जायेगी, क्योंकि प्रारब्ध की समाप्ति पर ही देहसम्पात होगा और देहसम्पात के बाद ज्ञान, तदनन्तर ब्रह्मसाक्षात्कार का फल मुक्ति सम्प्राप्त होगी। ऐसी अवस्था में ज्ञान के बिना ही मुक्ति माननी पडेगी, जो एक अभिनव सिद्धांत होगा तथा वेदान्त शास्त्र के लिए कभी भी ग्राह्य नहीं हो सकता। यदि प्रारब्ध से पूर्व उत्पन्न ज्ञान का प्रारब्ध के साथ प्रतिबद्ध होने के कारण, वह ज्ञान प्रारब्ध के सम्पात के साथ नष्ट हो जाता हैं ऐसा कहोंगे, तो फिर ज्ञान कहाँ रहा ?(१४७) अतः ज्ञान अज्ञान का विनष्टा हैं, यह सिद्धान्त ही ग्राह्य हैं, और यही ज्ञान, मुक्ति में कारण हैं। __ पूर्वपक्षी यहाँ शंका करता हैं कि, देह सम्पात से पूर्व ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति हो गई, परन्तु उस अज्ञान का संस्कार शेष रहा, जिसकी समाप्ति देह-सम्पात के साथ हुई, अत एव ज्ञान, अज्ञान को ध्वस्त करने में सहायक हुआ और सिद्धान्त भी खण्डित नहीं हुआ। ___ उसका समाधान करते हुए श्रीप्रकाशानन्द ने कहा हैं कि, संस्कार अविद्या का कार्य हैं। यदि अविद्या, विद्या से उपमर्दित हो गई, तब उसका कार्य कैसे शेष रहा ?(१४८) वस्तुतः अविद्यालेश का अर्थ हैं अविद्या ही। क्योंकि, अविद्या और उसके संस्कार में कोई भेद ही नहीं हैं। अत: अविद्यालेश का अर्थ हुआ अविद्या का शेष। यदि अविद्या के संस्कार को अनादि स्वीकार करे, तो उसका अत्यन्ताभाव नहीं होगा। यदि सादि मानते हैं, तो उसका उपादान कौन हैं ? आत्मा या अविद्या ? निर्धार्मिक एवं अविकारी आत्मा, अविद्या के संस्कार का उपादान नहीं हो सकता । यदि अविद्या उसका उपादान हैं, तब अविद्या के नष्ट हो जाने पर, उसका संस्कार कैसे शेष रहेगा? सभी भावकर्म का लोक में सोपादनत्व ही देखा जाता हैं । अतएव अवस्था का अविद्या से भेद या अभेद निरुपण में असमर्थ होने के कारण, संस्कार का पक्ष दूषित हो जाता हैं। यहाँ पुनः प्रश्न किया जाता हैं कि, "तस्य तावदेवचिरम्", "चक्षुरचक्षुरिव", "प्रजहाति यदाकामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान" इत्यादि श्रतिस्मति वाक्यो में ज्ञानी परुष की कैवल्यसिद्धि में विलम्ब प्रमाणित होता (१४४)विद्यायाः अविद्योपमर्दकत्वस्वभावहानिप्रसङ्गात्। -वे.सि.मु.का.वृ-४१(१४५) न चावरणशक्तिप्रधानमज्ञानं निवृत्तमेव विक्षेपशक्तिप्रधानं त्वनुवर्तते, प्रारब्धनिर्वाहेति वाच्यम्, अज्ञानाद्वयाभावात् ।- वही । (१४६) न च प्रारब्धनिवृत्त्या तन्निवृत्तिः प्रारब्धनिवृतेरप्रमाणत्वात् । वे.सि.मु.का-४१) (१४७) न च तदनन्तरं ज्ञानमेवाप्रतिबद्धं तन्निवर्तकमितिवाच्यम् प्रारब्धनाशे देहपातानन्तरं ज्ञानस्यैवाभावात् पूर्वज्ञानस्य च प्रारब्धेन प्रतिबद्धत्वात् । (वे.सि.म.का)(१४८) न चाविद्यासंस्कारो लेशविद्याशब्दाभिधेयो अनुवर्तते इति, तस्याप्यविद्याकार्यत्वात् अविद्यामात्रत्वे च संस्कारशब्दप्रयोगवैयर्थ्यात् । वे.सि.मु.का.पृ.४१ (१४९) जीवन्मुक्तिप्रतिपादकश्रुतिस्मृतिप्रामाण्यविदुषो देहस्थिति कल्पयते इति चेत्, न शास्त्रस्य जीवन्मुक्तिप्रतिपादने प्रयोजनाभावात् । वही। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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