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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
हो, वह विदेहमुक्त ही हैं। जो चित्तवृत्ति से पर हुआ हो, चित्तवृत्ति द्वारा (दूसरे का) प्रकाशक बना हो और (स्वयं) चित्तवृत्ति से रहित हो, वह विदेहमुक्त ही हैं। जो जीवात्मा और परमात्मा ऐसे प्रकार के अथवा सर्व प्रकार के चिंतन से रहित हुआ हो और जिसका स्वरुप सर्वसंकल्पो से छोड दिया गया हो वह विदेहमुक्त ही हैं। (जैसे सर्प की काँचरी (निर्जीव त्वचा) सर्प से अलग होकर निर्जीव बिल के उपर पडी हो, तब सर्प उसको अपनी नहीं मानता हैं, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष स्थूल को तथा सूक्ष्म शरीर को अपना मानता ही नहीं हैं। क्योंकि प्रत्यगात्मा के ज्ञानरुप अग्नि से उसका मिथ्याज्ञान कारण के साथ नष्ट हो जाता हैं। वैसे ही वह "नेति नेति" ऐसा अरूप वादमय ही बनता हैं । इसलिए शरीररहित होता हैं । विश्व, तैजस और प्राज्ञः ये तीन; विराट, हिरण्यगर्भ और ईश्वर : ये तीन; वैसे ही ब्रह्मांड, पिडांड और भुर् : आदि सभी लोक अपनी-अपनी उपाधि का लय होते ही प्रत्यगात्मा में लय पाता हैं। इसलिए बाद में शांत, शांत और शांत सत्य ही बाकी हैं, और कुछ भी नहीं होता हैं । काल का भेद, वस्तु का भेद, और देश का भेद ये सभी स्वरुप के ही भेद हैं, आत्मस्वरुप का कोई भेद नहीं हैं अथवा भेद जैसी कोई वस्तु ही नहीं हैं।
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जीव और ईश्वर ऐसे वाक्य वेद और शास्त्रो में हैं । परंतु उसमें "मैं" ऐसा चैतन्य ही हैं; यह सब चैतन्य ही हैं और ‘“मैं” वह भी चैतन्य ही हैं।" ऐसे निश्चय से भी जो शून्य हुआ हो वह विदेहमुक्त हैं।
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वेदांत सिद्धांत मुक्तावलीकार श्रीप्रकाशानन्द के मतमें जब अज्ञान के कर्तृत्वादि अशेष अनर्थकारक कार्यो का तत्त्वमसि आदि महावाक्य से उत्पन्न ज्ञान से नाश हो जाता हैं। तब ब्रह्म का साक्षात्कार होता हैं, जिसका फल मोक्ष हैं । (१४१) इस प्रकार जब अविद्या, विद्या से बाधित हो जाती हैं, तब ब्रह्मसाक्षात्कार होता हैं, बाध से यहाँ अभिप्राय हैं, जब शुद्ध अधिष्ठान में उसके बाधक प्रवर्तमान या निवर्तमान परोक्ष या प्रत्यक्ष रुप से उत्पन्न अज्ञान का त्रैकालिक अभाव(१४२)। पर इस अभाव की अनुभूति मात्र प्रमाता को होगी। इस तरह श्री प्रकाशानन्द का मोक्षविषयक सिद्धान्त, परंपरागत आचार्यो के सदृश ही हैं, पर यह मोक्ष, सद्योदेहपात के अनन्तर ही मिलता हैं, ऐसा उनका दृढ मन्तव्य हैं। इसके लिए तर्क देते हैं कि जैसे प्रकाश आने पर अंधकार तक्षण समाप्त हो जाता हैं, वैसे ही ज्ञान के बाद अज्ञान से उत्पन्न शरीर का सम्पात हो जाता हैं और मुक्ति मिल जाती हैं। वे प्रारब्धकर्मजन्य इस शरीर को भी अविद्या
कार्य होने के कारण, उसकी स्थिति, ज्ञानोत्तरक्षण में नहीं मानते। क्योंकि जब अविद्या हैं ही नहीं, तब उसका शरीर कैसे शेष रहेगा ? जिस प्रकार तन्तु के नाश होने पर पट का भी नाश हो जाता हैं, उसी प्रकार अविद्या के नाश होने पर उसके भूतशरीर का भी विलय हो जाता हैं । (१४३)
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यदि यह मानते हैं कि ज्ञानोदय के अनन्तर कुछ क्षणो के लिए यह शरीर रह सकता हैं, तो विद्या, अविद्या को
सर्पो नाभिमन्यते ॥ ९८८॥ एवं स्थूलं च सूक्ष्मं च शरीरं नाभिमन्यते । प्रत्यग्ज्ञानशिखिध्वस्ते मिथ्याज्ञाने सहेतुके ||९८९ || नेति नेतीत्यरूपत्वादशरीरो भवत्ययम् । विश्वश्च तैजसश्चैव प्राज्ञश्चेति च ते त्रयम् ॥ ९९० ।। विराड् हिरण्यगर्भश्चेश्वरश्चेति च ते त्रयम् । ब्रह्मांडं चैव पिंडाडं लोका भूरादयः क्रमात् ॥ ९९१ ॥ स्वस्वरुपोपाधिलयादेव लीयन्ते प्रत्यगात्मनि तूष्णीमेव ततस्तूष्णीं तूष्णीं सत्यं न किंचन ॥ ९९२ ॥ कालभेदं वस्तुभेदं देशभेदं स्वभेदकम् । किंचिद्भेदं न तस्यास्ति किंचिद्वापि न विद्यते ॥९९३॥ जीवेश्वरेति वाक्ये च वेदशास्त्रेष्वहंत्विति । इदं चैतन्यमेवेत्यहं चैतन्यमित्यपि ॥ ९९४॥ इति निश्चयशून्यो यो विदेह मुक्त एव सः । ब्रह्मैव विद्यते साक्षाद्वस्तुतोऽवस्तुतोऽपि च ॥९९५ ॥ तद्विद्याविषयं ब्रह्म सत्यज्ञानसुखात्मकम्। शान्तं च तदतीतं च परं ब्रह्म तदुच्यते ॥९९६॥ (स.वे.सि.सा.सं.) (१४१ ) कर्तृत्वाद्यशेषानर्थव्रातप्रसवबीजस्यात्माज्ञानस्य स्वानुभवसिद्धत्वात् तत्त्वमस्यादिवाक्यजन्यापरोक्षब्रह्मात्मसाक्षात्कारेण । - (वे. सि. मु. का. पृ. ३९) (१४२ ) शुद्धेऽधिष्ठाने विपरीतमध्यस्य प्रवर्तमानस्य निवर्तमानस्य वा यदधिष्ठानविषयकबाधकज्ञानं परोक्षमपरोक्षं नोत्पन्नं तदनन्तरमिदमहकालत्रयेऽपि नास्तीति योऽयं निश्चयः स एव बाध: । ( वही. का. पृ.४०) (१४३) न च प्रारब्धसामर्थ्याद्देहपातो नास्तीतिवाच्यम् प्रारब्धस्याप्यविद्याकार्यतया तदभावे स्थातुमशक्यत्वात् । तन्त्वाभावे पटस्येव । - वे. सि. मु. का. पृ. ४१
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