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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ३८३ यहाँ एक प्रश्न उठ सकता हैं कि, जीवन्मुक्त के लिए समग्र सृष्टि ब्रह्म स्वरुप ही हैं। केवल प्रारब्ध कर्म के कारण देहवास हैं और उसके विषय को और दूसरे कार्यो को करता हैं, फिर भी तटस्थता से करता हैं, कही भी लेपायमान नही होता हैं, तो यहाँ प्रश्न होता हैं कि, जैसे वह शुभ कार्य करता हैं, वैसे अशुभ कार्य भी क्यों न करे? उसको तो अच्छा-बुरा जैसा कुछ भी नहीं हैं। सब ब्रह्मस्वरुप ही हैं। इस प्रश्न का जवाब वेदांतसार में १३५) देते हुए बताया हैं कि, "जीवन्मुक्त को शुभ और अशुभ के प्रति उदासीनता होती हैं, फिर भी ज्ञान होने से पहले जैसे वह खाना पीना इत्यादि क्रियायें करता है, वैसे ज्ञान हो जाने के बाद उसी संस्कार के अनुवेध से वह सभी क्रियायें करता रहता हैं । परंतु वासनाओ के विषय में तो ज्ञान के पहले की शुभवासनाओं की ही अनुवृत्ति होती हैं, अशुभ वासनाओं की नहीं"। __ इस विषय की स्पष्टता करने के लिए वेदांतसार में नैष्कर्मसिद्धि १३६) ग्रंथ की साक्षी देते हुए कहते हैं कि, अद्वैत को जाननेवाला भी यदि यथेच्छ आचरण करे तो अशुद्ध आहार के विषय में कुत्ते और तत्त्वदर्शीओं में क्या भेद रहेगा? (इसलिए, अच्छा यह हैं कि आत्मवेत्ता जीवन्मुक्त आत्मा अशुभ प्रवृत्तियाँ न करे ।) जीवन्मुक्त सभी प्रकार के अहंभाव से मुक्त १३७) होता हैं। "मैं आत्मज्ञानी हुँ, दूसरे तुच्छ पामर हैं' ऐसा अहंभाव भी जिन में न हो वही सच्चा ब्रह्मवेत्ता हैं । ज्ञान मिलने से पहले साधकदशा में निरभिमानत्व, अद्वेष्टात्व इत्यादि शुभभाव उसकी ज्ञानसाधना के लिए आवश्यक साधन थे, वे ज्ञानप्राप्ति के बाद उसका स्वभाव बन जाते हैं। प्रतिबिंबवाद के प्रतिष्ठापक श्रीसर्वज्ञात्म मुनि जीवन्मुक्ति का स्वीकार करते नहीं हैं। उनके मतानुसार अविद्या का विरोधी तत्त्वसाक्षात्कार होने के बाद अविद्या की जरा सी भी अनुवृत्ति नहीं होती हैं । इसलिए वे जीवन्मुक्ति का निरुपण करते अन्य शास्त्रो को केवल अर्थवाद(१३८) मानते हैं। जब कि, श्री विद्यारण्य स्वामी कहते हैं कि, तत्त्वसाक्षात्कार होने के बाद भी प्रारब्ध कर्मो का नाश होने तक अविद्यालेश की अनुवृत्ति रहती हैं इसलिए जीवन्मुक्ति संभव हैं । उनके मतानुसार प्रारब्ध कर्म अविद्या की पूर्णनिवृत्ति में बाधक हैं । (१३९) • विदेहमुक्त के लक्षण :- विदेहमुक्त के लक्षण बताते हुए सर्ववेदांत-सिद्धांत सार संग्रह(१४०) ग्रंथ में कहा है कि, "मैं ब्रह्म ही हुँ, मैं चैतन्य ही हुँ' ऐसा भी जो चिन्तन न करे, परन्तु केवल चैतन्य के अंश जैसा ही रहे, वह विदेहमुक्त ही हैं। जिसको प्रपंच का भान न हो और ब्रह्माकार भी न हो, परंतु भूतकाल के भाव जिसके चले गये (१३५) अस्य ज्ञानात्पूर्वं विद्यमानानामेवाहारविहारादीनामनुवृत्तिवच्छुभवासनानामेवानुवृत्तिर्भवति शुभाशुभयोरौदासीन्यं वा। (वेदांतसार- ६/२१०) (१३६) बुद्धाद्वैतसतत्त्वस्य यथेष्टाचरणं यदि । शुनां तत्त्वदृशां चैव को भेदोऽशुचिभक्षणे ।। (नैष्कर्मसिद्धि ४.६२) (१३७) ब्रह्मवित्त्वं तथा मुक्त्वा स आत्मज्ञो न चेतर : । (उपदेशसाहस्री-१२.१३) (१३८)सर्वज्ञात्मगुरवस्तु विरोधिसाक्षात्कारोदये लेशतोऽपि अविद्यानुवृत्यसम्भवात् जीवन्मुक्तिशास्त्रश्रवणादिविध्यर्थवादमात्रम् शास्त्रस्य जीवन्मुक्तिप्रतिपादने प्रयोजनाभावात् । (सि. ले. सं. पृ.-१३-१४) (१३९) निस्सारितपुष्पे पुष्पमात्रस्थिता: सूक्ष्मा: पुष्पावयवाः एव गन्धबुद्धिमुत्पादयन्ति न संस्कार इति चेत् तथापि प्रलयावस्थायां सर्वकार्यसंस्कारोऽभ्युपगम एव। (वि.प्र.सं. पृ.३१०) (१४०) ब्रह्मैवाहं चिदेवाहमेवं वापि न चिंत्यते। चिन्मात्रेव यस्तिष्ठेद्विदेहो युक्त एव सः ॥९८३॥यस्य प्रपंचमानं न ब्रह्माकारमपीह न। अतीतातीतभावो यो विदेहो मुक्त एव सः ॥९८४।। चित्तवृत्तेरतीतो यश्चित्तवृत्त्यावभासकः । चित्तवृत्तिविहीनो यो विदेहो मुक्त एव सः ॥९८५॥ जीवात्गेति परामात्मेति सर्वचिंताविवर्जित: सर्वसंकल्पहीनात्मा विदेहो मुक्त एव सः ॥९८६।। ओम्कारवाच्यहीनात्मा सर्ववाच्यविवर्जितः। अवस्थात्रयहीनात्मा विदेहो मुक्त एव सः ॥९८७॥ अहिनिलयनीसर्पनिमोको जीववजितः । वल्मीके पतितस्तिष्टेतं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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