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________________ ३८२ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन भी शून्य बने, समुद्र में रहे हुए पूर्ण कलश की तरह अंदर पूर्ण और बाहर भी पूर्ण हो, यह सर्व जगत जैसा हैं वैसा ही रहा हुआ होने से उसमें तब व्यवहार करे, फिर भी जिसकी दृष्टि से सब अस्त हुआ हो और केवल आकाश ही रहा हो उसे (१२२)जीवन्मुक्त कहा जाता हैं। जिनके मन की भावना सुख में उदय नहीं पाती हैं और दुःख में अस्त नही होती हैं, परंतु जो कुछ प्राप्त हुआ हो उसमें जिनकी एक ही स्थिति हो, उसे जीवन्मुक्त १२३) कहा जाता हैं। जो सुषुप्ति में रहा हो फिर भी जागता हैं, जिनको जाग्रत अवस्था नहीं होती हैं और जिनका ज्ञान वासनारहित हो, उसे जीवन्मुक्त १२४) कहा जाता हैं। राग-द्वेष-भय इत्यादि का अनुसरण करके वर्तन करता हो, वैसा लगता हो (अर्थात् व्यवहार में प्रवृत्ति-निवृत्ति रागादि के कारण होती हो वैसा लगे) फिर भी अंतःकरण में आकाश जैसा अत्यंत स्वच्छ हो, उसे जीवन्मुक्त १२५) कहा जाता हैं। जिसका भाव अहंकारवाला न हो और कुछ करे या न करे, फिर भी जिसकी बुद्धि नही मानी जाती, उसे जीवन्मुक्त १२६) कहा जाता हैं। जो समग्र पदार्थों में व्यवहार करता हो, फिर भी शीतल स्वभाव का रहे और सर्व पदार्थ जैसे पराये ही हैं, इस प्रकार उस पदार्थो के विषय में दृष्टि करके पूर्णात्मा बने, उसे जीवन्मुक्त १२७) कहा जाता हैं। जिनका चित्त किसी भी विषय में व्याकुल हुए बिना केवल द्वैतरहित और परमपवित्र ऐसे चैतन्यरुप पद में ही विश्रांति को प्राप्त हुआ हो, उसे जीवन्मुक्त १२८) कहा जाता हैं। जिनके चित्त में यह जगत यह पदार्थ या वह पदार्थ अथवा अवास्तविक समग्र दृश्य वस्तुयें कभी भी स्फुरित नहीं होती हैं, उसे जीवन्मुक्त १२९) कहा जाता हैं। "मैं चैतन्यरुप आत्मा हूँ, मैं परमात्मा हूँ, मैं निर्गुण हूँ और पर से भी पर हूँ" इस तरह से केवल आत्मरुप में जो स्थिति करे, उसे जीवन्मुक्त १३०) कहा जाता हैं। "मैं तीनो देह से भिन्न हुँ, मैं शुद्ध चैतन्य ही हुँ और मैं ब्रह्म ही हुँ' ऐसा जिसके अंतर में रहा करे, उसे जीवन्मुक्त १३१) कहा जाता हैं। जिनकी दृष्टि से देहादि कुछ हैं ही नहीं, परंतु "सब कुछ ब्रह्म ही हैं' ऐसा निश्चय हुआ हो, उपरांत परमानंद से जो पूर्ण बना हो, उसे जीवन्मुक्त १३२) कहा जाता हैं। "मैं ब्रह्म हुँ, मैं ब्रह्म हुँ, मैं ब्रह्म हुँ और मैं चैतन्य हुँ मैं चैतन्य हुँ" ऐसा जिसका निश्चय हुआ हो, उसे जीवन्मुक्त १३३) कहा जाता हैं। उपरांत, जीवन्मुक्त आत्मा शरीर संबंधित और अन्य कर्म करता है, उसका फल भी भुगतता हैं, परंतु उन सबसे लिप्त नहीं होता हैं। अर्थात् मैं कर्मो का कर्ता हुँ और उसके फलों का भोक्ता हुँ' ऐसा कर्ता-भोक्ता अहंभाव होता न होने से जीवन्मुक्त आत्मा लेपायमान नहीं होता हैं। उपदेश (१३४)साहस्री में कहा हैं कि, सुषुप्ति अवस्था की तरह ही जीवन्मुक्त आत्मा जाग्रत होने पर भी कुछ देखता नहीं हैं । द्वैत को अद्वैत के रुप में देखता हैं । काम करते हुए भी निष्क्रिय हैं, वही आत्मवेत्ता हैं । (१२२) यत्र नासन्न सच्चापि नाहं नाप्यनहंकृतिः केवलं क्षीणमनन आस्तेऽद्वैतेऽतिनिर्भयः ।। अंतःशून्यो बहि:शून्यः शून्यकुंभ इवाबरे। अंत:पूर्णो बहि:पूर्णः पूर्णकुंभ इवार्णवे। यथास्थितमिदं सर्व व्यवहारवतोऽपि च । अस्तं गतं स्थितं व्योम स जीवन्मुक्त उच्यते ॥९६५-६६-६७।। (१२३) नोदेति नास्तमायाति सुखदुःखे मनःप्रभा। यथाप्राप्तस्थितिर्यस्य स जीवन्मुक्त उच्यते ॥९६८॥ (१२४) यो जागति सुषुप्तिस्थो यस्य जाग्रन्न विद्यते। यस्य निर्वासनो बोधः स जीवन्मुक्त उच्यते॥९६९॥(१२५) रागद्वैषभयादीनामनुरुपंचरन्नपि योऽतोमवदत्यच्छ: स जीवन्मुक्त उच्यते ॥९७०।। (१२६ ) यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । कुर्वतोऽकुर्वतो वापि स जीवन्मुक्त उच्यते ॥९७१।। (१२७) यः समस्तार्थजालेषु व्यवहार्यपि शीतलः । परार्थेष्विव पूर्णात्मा स जीवन्मुक्त उच्यते ।।९७२।। (१२८) द्वैतवजितचिन्मात्रे पदे परमपावने । अक्षुब्धचित्तविश्रान्तः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥९७३।। (१२९) इदं जगदयं सोऽयं दृश्यजातमवास्तवम् । यस्य चित्ते न स्फुरति स जीवन्मुक्त उच्यते ॥९७४।। (१३०) चिदात्माहं परमात्माहं निर्गुणोऽहं परात्परः । आत्ममात्रेण यस्तिष्ठेत्स जीवन्मुक्त उच्यते ।।९७५।। (१३१) देहत्रयातिरिक्तोऽहं शुद्धचैतन्यमस्म्यहम् । ब्रह्माहमिति यस्यान्तः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥९७६।। (१३२) यस्य देहादिकं नास्ति यस्य ब्रह्मेति निश्चयः । परमानंदपूर्णो यः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥९७७॥ (१३३) अहं ब्रह्मास्महं ब्रह्मास्महं ब्रह्मेति निश्चयः । चिदहं चिदहं चेति स जीवन्मुक्त उच्यते ।।९७८।। (१३४) सुषुप्तिवज्जाग्रति यो न पश्यति द्वयं च पश्यन्नपि चाद्वयत्वतः । तथा च कुर्वन्नपि निष्क्रियश्च यः स आत्मविन्नान्य इतीह निश्चयः ।। (उ.सा. १०.१३) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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