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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
वह मोक्ष ज्ञान से ही साध्य हैं। क्योंकि, "उसको जानकर (मनुष्य) मृत्यु को पार कर जाता हैं, इसके लिए अन्य दूसरा कोई मार्ग नहीं हैं।"- यह श्रुति हैं। और "अज्ञान की निवृत्ति एकमात्र ज्ञान से ही साध्य हैं"- ऐसा नियम हैं। उस मोक्ष के कारणभूत ज्ञान का विषय, ब्रह्म और आत्मा दोनो का ऐक्य हैं । अर्थात् ब्रह्म और आत्मा के अभेद का ज्ञान हो तब उस ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति होती हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। (द्वैत ज्ञान मोक्ष में बाधक बनता था, अभेद ज्ञान होने से द्वैतज्ञान नाश होता हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती हैं।) मोक्ष के कारणभूत वह ज्ञान (१११)अपरोक्ष हैं। क्योंकि, यदि वह परोक्ष होता तो उससे "अपरोक्षभ्रम" की निवत्ति नहीं होती। वह अपरोक्षज्ञान "तत्त्वमसि" इत्यादि वाक्यो से होता हैं। ऐसा कुछ लोग कहते हैं और कुछ लोग मनन-निदिध्यासन से संस्कृत बने हुए अंत:करण से होता हैं, ऐसा कहते हैं।
• मुक्ति के प्रकार :- वेदांत दर्शन में मुक्ति के दो प्रकार बताये गये हैं। (१) जीवन्मुक्ति और (२) विदेहमुक्ति। जीव को ब्रह्मज्ञान होने से अज्ञान नष्ट हो जाने से आत्मबोध प्राप्त होता हैं। उसके कारण मैं छोटा, बडा, अच्छा, बुरा, पैसेवाला, निर्धन, ऐसी भेदबुद्धि दूर हो जाती हैं। और वह अखंड एकरस ब्रह्मभाव को प्राप्त करता हैं । ऐसा होने पर भी तुरंत शरीर छूट नहीं जाता हैं। प्रारब्ध कर्मजन्य शरीर अभी हैं। उसका जीवन अभी चालू होता हैं, वह मुक्त अवस्था में अपना शेष जीवन व्यतीत करता हैं । उसकी यह अवस्था वह जीवन्मुक्ति ११२) हैं।
ऐसे मुक्त जीव का शरीरपात हो जाता हैं तब वह संसार के समस्त बंधनो में से मुक्त हुआ होता हैं, उसको जन्ममरण की परंपरा रुपी घटमाला में पडना नहीं रहता हैं। इस मुक्ति को विदेहमुक्ति कहा जाता हैं । इस तरह से जो मुक्ति के दो प्रकार हैं, वह भेद वस्तुगत भेद नहीं हैं, परंतु स्थितिगत हैं । वस्तु के रुप में तो मुक्ति अर्थात् स्वरुप में अवस्थान और वह तो एक और अखंड हैं।
जीवन्मुक्ति का समर्थन करते हुए श्रीशंकराचार्य ने शारीरिक भाष्य में बताया हैं कि, जैसे कुंभकार के चक्र की गति, दंडादि की निवृत्ति हो जाने के बाद भी कुछ समय तक रहती हैं, वैसे जीव के अज्ञान का नाश हो जाने के बाद भी - ब्रह्मानुभूति होने के बाद भी कुछ समय तक वह शरीर धारण करके रह सकता हैं। दूसरा एक उदाहरण देते हुए शारीरिक भाष्य में बताते हैं कि, "यह सूर्य नहीं हैं, परन्तु सूर्य का प्रतिबिंब हैं ", ऐसा ज्ञान होने पर भी जब तक प्रतिबिंब दिखाई देता हैं, तब तक सूर्य का अस्त नहीं होता हैं । उसी तरह से अज्ञान बाधित हो जाये तब भी (११३) उसके संस्कार के कारण जीव ब्रह्मानुभूति करता होने पर भी शरीर धारण करके रह सकता हैं। श्रीवाचस्पति मिश्र के मतानसार. जिस प्रकार से (रज्ज में सर्प की प्रतीति के कारण उत्पन्न भयादि की निवृत्ति हो जाने पर भी सर्प के भय का विभ्रम कुछ समय तक रहता हैं, उसी प्रकार से अविद्या की निवृत्ति हो जाये तो भी तज्जन्य संस्कार के कारण विमुक्तात्मा कुछ समय शरीर धारण करके रह सकता हैं ।(११४) उसमें कोई विरोध नहीं हैं। क्योंकि उसमें अतिवाक्य का भी समर्थन हैं। "हे जनक। तुम अभय प्राप्त कर चूके
(१११) तच्च ज्ञानमपरोक्षरुपम्। परोक्षत्वेऽपरोक्षभ्रमनिवर्तकत्वानुपपत्तेः। तच्चापरोक्षज्ञानं तत्त्वमस्यादि-वाक्यादिति केचित्। मनननिदिध्यासनसंस्कृतान्तःकरणादेवेत्यपरे । (वेदांतपरिभाषा-प्रयोजनपरिच्छेदः) (११२) तस्मिन्कुलालचक्रवत्प्रवृत्तवेगस्यान्तराले प्रतिबन्धासम्भवात् भवति वेगक्षयप्रतिपालनम्- (ब्र.सू.शां.भा. ४.१.१५) (११३) बाधितमपि मिथ्याज्ञानं द्विचन्द्रज्ञानवत्संस्कारवशात् कंचित्कालमनुवर्तत एव । ब्र.सू.शां. भा-४.१.१५ (११४) रज्जौ सर्पादिविभ्रमजनिताः भयकम्पादयो निवृत्तेऽपि विभ्रमे यथानुवर्तन्त तथेहापीति । (भामती- ४.१.१५)।
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