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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ३७९ मोक्ष उससे भिन्न हैं इसलिए वह मोक्ष में सहायक नहीं बन सकता हैं। __ वैसे ही, मोक्ष के लिए न तो कोई कार्य-कारणभाव सहायक हैं और न तो कोई परिणाम । क्योंकि वह ज्ञानमात्र से बोध्य हैं। मोक्ष नित्य होने के कारण भूत-भविष्यकाल आदि भी असहायक ही हैं। इसलिए ही ब्रह्म को कालातीत कहा गया हैं। कालातीत ब्रह्म (मोक्ष) काल के बंधनो से बोधित किस तरह से हो सकता हैं ? इस तरह से मुक्तस्वरुप ब्रह्म धर्माधर्म, कार्य-कारण, और काल से उपर हैं, पृथक् हैं। यद्यपि, कर्म का मोक्षप्राप्ति में परंपरा से संबंध हो सकता हैं । उपासनादि से मन की पवित्रता संभवित हैं, जो प्रकारान्तर से ज्ञानप्राप्ति में सहायक बन सकती हैं। परन्तु कर्म के साथ मोक्ष का साक्षात् संबंध नहीं हो सकता हैं। कर्म के साथ का मोक्ष का साक्षात् ( प्रत्यक्ष ) संबंध का खंडन करते हुए श्रीशंकराचार्य (१०९ शारीरिक भाष्य में बताते हैं कि, मोक्ष उत्पादित वस्तु नहीं हैं, कि जिसमें कर्म अपेक्षित हो । यदि ऐसा हो तो उसमें शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक कार्य की अपेक्षा हो, परंतु उसमें ऐसी अपेक्षा नहीं हैं। क्योंकि, नित्यमोक्ष में उत्पाद्य कर्म किस तरह से संभव हो सकेगा? मोक्षज्ञान दहीं की तरह विकार भी नहीं हैं। परंतु सर्वोच्च ज्ञान ही मोक्ष हैं। विकार पक्ष में भी ज्ञान को विकारी मानने से अनित्यत्व की आपत्ति दोष उत्पन्न होता हैं। इसलिए मोक्ष में कर्म सहायक नहीं हैं। और मोक्षज्ञान विकार भी नहीं हैं। __ इस तरह से मोक्ष मात्र "मैं ब्रह्म हूँ" यह अनुभूति हैं । वस्तुतः वह जीव का सार तत्त्व हैं। श्री शंकराचार्य ((११०'बृहदारण्यकोपनिषद् भाष्य में मोक्ष की कर्मापेक्षा का खंडन करते हुए कहते हैं कि, मुक्ति की प्राप्ति के लिए स्थानविशेष की अपेक्षा नहीं होती हैं। इसलिए मोक्ष; कर्म की अपेक्षा नहीं रखता हैं। अद्वैतवेदांत मतानुसार मोक्ष आनंदस्वरुप हैं। नैयायिको की तरह आनंदरहित नहीं है। वेदांतपरिभाषा के प्रयोजन परिच्छेद में आनंद स्वरुप मोक्ष ही बताया हैं। "आनन्दात्मक-ब्रह्मावाप्तिश्च मोक्षः शोकनिवृत्तिश्च । "ब्रह्म वेदब्रह्मैव भवति'' (मु. ३-२-९) "तरति शोकमात्मवित्" (छां. १-१-३) इत्यादिश्रुतेः । न तु लोकान्तरावाप्तिः, तज्जन्य-वैषयिकानन्दो वा मोक्ष: । तस्य कृतकत्वेनानित्यत्वे मुक्तस्य पुनरावृत्त्यापत्तेः। आनंदात्मक ब्रह्मप्राप्ति और शोकनिवृत्ति ही मोक्ष हैं। "ब्रह्म को जान लेने से ब्रह्म ही हो जाता हैं" और "आत्मवेत्ता शोक को तैर जाता हैं - शोक से उपर उठकर रहता हैं" इत्यादि श्रुतियाँ उसमें प्रमाण हैं । लोकान्तर प्राप्ति का नाम मोक्ष नहीं हैं अथवा उसमें प्राप्त होनेवाले वैषयिक आनंद को भी मोक्ष नहीं कहा जाता हैं। क्योंकि, वह कृत्रिम होने से अनित्य हैं और उस कारण से मुक्त जीव को भी पुनः संसारावृत्ति आयेगी- संसार में आना पडेगा। सारांश में, मोक्ष आनंदस्वरुप हैं और ब्रह्मवेत्ता को वह प्राप्त होता हैं। यह मोक्ष एकमेव ज्ञान से ही साध्य हैं इस बात को बताते हुए वेदांत परिभाषा के प्रयोजन परिच्छेद में बताया हैं कि, सच ज्ञानैक -साध्यः "तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय' (श्वे. ३.८) इति श्रुते :, अज्ञान निवृत्तेर्जानैकसाध्यत्वनियमाच्च । तच्च ज्ञानं ब्रह्मात्मैक्यगोचरम । (१०९) यस्य तूत्पाद्यो मोक्षस्तस्य मानसं वाचिकं कायिकं वा कार्यमपेक्षते इति युक्तम् । तथा विकार्यत्वे च तयोः पक्षयोर्मोक्षस्य ध्रुवमनित्यत्वम् । नहि दध्यादि विकार्योत्पद्यं वा घटादिनित्यं दृष्टं लोके । (ब्र. सू. शां. भा. १.१.४) (११०) मोक्षो न देशान्तरगमनाद्यपेक्षते । (बृ.उ. शां.भा.४.४.७) Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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