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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
पदार्थो से बीच में तृप्ति मिलती हैं । परन्तु कालांतर से नयी नयी भोगेच्छाओं का प्रादुर्भाव होता है इसलिए वह अनित्यतृप्ति हैं । जब कि, मोक्षावस्था में नित्यतृप्ति प्राप्त होती हैं। सुवर्ण का सुवर्णत्व के रुप में यथार्थ ज्ञान हो और सुवर्ण मिल जाये तब स्वत: आभूषणो का आग्रह समाप्त हो जाता हैं, वैसे मोक्षावस्था में नित्यतृप्ति प्राप्त होने से संसार की भोगेच्छायें समाप्त हो जाती हैं।
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(१०२) मुक्तावस्था
भामतीकार के मतानुसार नित्यतृप्ति का अर्थ हैं - दुःखो का सर्वथा अभाव और सुखमयत्व" क्षुधादिजन्य दुःखो से रहित सुखमात्र ही होता हैं। इसलिए जीव मुक्त हो तब नित्यतृप्त रहता हैं । गौडपादाचार्य भी गौडपादकारिका में कहते हैं कि, (१०३) आप्तकाम पुरुष में स्पृहा नहीं रह सकती हैं ।
राधाकृष्णन् के मतानुसार आत्मा का विलोप होना वह मोक्ष नहीं हैं। (अर्थात् बौद्धमान्य मोक्ष वह मोक्ष नहीं हैं ।) परंतु चैतन्य का विस्तार तथा प्रकाश द्वारा अपनी अनंतता और निरपेक्षता का साक्षात्कार कर लेना उसका नाम ही मोक्ष ( १०४ ). ( ) हैं ।
आत्मा का तात्त्विक स्वरुप परमानंदस्वरुप हैं, उसको अज्ञान अपनी आवरण एवं विक्षेप शक्ति द्वारा आवृत्त कर देता हैं। अज्ञान का नाश होने से मोक्षावस्था में वह स्वरुप प्रकट हो जाता हैं। और मुक्तात्मा उस स्वरुप में अवस्थित हो जाता हैं । ( १०५)
मुक्ति निरवयव हैं । जिस प्रकार से ब्रह्म पर- अपर एवं स्वगत भेदो से रहित हैं, उसी प्रकार मुक्ति भी सर्व अवयवो से रहित हैं । जब मुक्तात्मा अनंत प्रकाश का साक्षात्कार अन्तर्दृष्टियों से प्राप्त कर लेता हैं, तब समस्त प्राणी, ब्रह्म से लेकर वनस्पति जगत एक स्वप्न के समान स्वयं अपने को एकाकार (१०६) कर देता हैं ।
श्री वाचस्पति मिश्र(१०७) ‘" निरवयव" पद में अवयव का अर्थ बीजो की अंकुरणशक्ति करते हैं, जैसे भुने हुए बीजो में अंकुरणशक्ति नहीं रहती हैं, वैसे ज्ञान से दग्ध अज्ञान कोई भी कामनाओं को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं रहता हैं। इसलिए एकबार मोक्ष हो जाने के बाद संसार के कारणभूत कामनाओं का प्रादुर्भाव नहीं होता हैं। अज्ञान की अंकुरणशक्ति ज्ञान द्वारा नष्ट हो जाने से आत्मा मोक्षपद को प्राप्त करता हैं । इसी तरह से मोक्ष निरवयव हैं।
मुक्ति स्वप्रकाश हैं। अविद्या की निवृत्ति के बाद मुक्तात्मा संस्कारित हुए सुवर्ण की तरह चमकने लगता हैं, अत्यंत शुद्ध प्रकाशवाला बनता हैं। अथवा जैसे दिन ढलने पर निर्मल आकाश में नक्षत्रगण चमकने लगते हैं वैसे मुक्तात्मा सूर्यसमान अपने रुप का स्वयं प्रकाशक होता हैं । (१०८)
यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, अद्वैत वेदांत मत में मोक्ष ज्ञान से ही साध्य हैं। उसमें कर्म (मीमांसक परिकल्पित कर्मक्रियाकांड) लेशमात्र भी सहायक नहीं बनते हैं । इस विषय में अद्वैतवेदांतीयों की दलील हैं कि, जैसे रज्जुज्ञान ही, सर्पज्ञान रुपी भ्रम को दूर कर सकता हैं, वैसे केवल ज्ञान ही अज्ञान को दूर कर सकता है और मोक्ष दे सकता हैं। मोक्ष प्राप्ति में कर्म (क्रिया) लेशमात्र भी सहायक नहीं बन सकती हैं। कर्म शुभाशुभ फलो का दाता मात्र हैं। और
( १०२ ) तृप्त्या दु:खरहितं सुखमुपलक्षयति । क्षुदुःखनिवृत्तिसहितं हि सुखं तृप्ति: - भामती शा. भा. १.१.४ (१०३ ) आप्तकामस्य का स्पृहा-गौ. का १ - ९(१०४) भारतीयदर्शन, भाग - २, पृ- ६३७ (१०५ ) स्वात्मन्यवस्थानम् - ब्र. सू. शां. भा. ४ - ४.३ ) ( १०६ ) श्रीसुरेश्वराचार्य-मानसोल्लास. (१०७) व्रीहीणां खलु प्रोक्षणेन संस्काराख्योंऽशो यथा जन्यते, नैवं ब्रह्मणि कश्चिदंश: क्रियाधेयोऽस्ति, अनवयवत्वात् (भामती - १.१.४) (१०८) सुवर्णादीनां तु द्रव्यान्तरसंपर्कादभिभूतस्वरुपाणामानभिव्यक्तासाधारणविशेषाणां क्षारप्रक्षेपादिभिः शोध्यमानानां स्वरुपेणाभिनिष्पत्तिस्यात् । तथा नक्षत्रादीनाम् । ब. सू. शां. भा १. ३. १९.
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