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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ३७७ नित्यता कही जाती हैं। वेदांती अपरिवर्तनशील नित्यता को कूटस्थ नित्यता कहते हैं। मोक्ष को कूटस्थ कहने में यह अभिप्राय हैं कि, मोक्ष आकाश या पर्वतो की तरह कूटस्थ नित्य हैं और जगत में होनेवाले परिवर्तन मोक्ष के उपर किसी भी प्रकार का प्रभाव नहीं जमा सकते हैं। __उपरांत, मोक्ष तो परमार्थतत्त्व ब्रह्मानुभव से अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। और उस ज्ञान में ज्ञाता ज्ञेय एवं ज्ञान से भिन्न अन्य कोई भी नहीं हैं। इसलिए ही मोक्ष कूटस्थ नित्य हैं (९९) परम मोक्ष में तो ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान का भेद भी परिलक्षित होता नहीं हैं । एकमात्र आत्मतत्त्व ही शेष रहता हैं ! मोक्ष आकाश की तरह सर्वव्यापी हैं। क्योंकि ब्रह्म आकाश की तरह सर्वव्यापी और जीव से अभिन्न हैं। इसलिए मोक्ष ब्रह्म के सदृश सर्वव्यापी हैं। यहाँ याद रखना कि, मोक्ष और आकाश में सदृशता का कारण सर्वव्यापकत्व धर्म ही हैं। बाकी दोनों में समानता संभव नहीं हैं। वेदांत मतानुसार मोक्ष कूटस्थ नित्य हैं और आकाश उत्पन्न हुआ अनित्य तत्त्व हैं। जीव और ब्रह्म के अभेद को श्रीशंकराचार्य ने और श्रीवाचस्पति मिश्र ने "कटकहाटक १००) (सुवर्ण आभूषण)" के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया हैं। ब्रह्म हाटक (सुवर्ण) हैं और जीव कटक (आभूषण) है। आभषण. सवर्ण में उत्पन्न एक आकतिविशेष हैं। वह आकति देश काल आदि से अपेक्षित तथा संबंधित होने के कारण अनित्य हैं । परंतु उसमें सुवर्णत्व रुप हाटकत्वांश, हाटकसदृश ही नहीं, हाटक ही हैं । जीव का ब्रह्मत्व या अभेदत्व, ब्रह्मत्व रुप में ही हैं। क्योंकि सद्पत्व तो, हाटकत्व का संभव हैं, कटक का रुप अनित्य होने के कारण उसमें सद्पत्व संभवित नहीं हैं। इसलिए जीव अपने जीवत्व रुप में असत् हैं और चेतनांश ब्रह्मरुप में सत् हैं। जीव और ब्रह्म का अभेद संबंध, ब्रह्मत्व रुप में ही संभवित हैं। अज्ञान के कारण उत्पन्न भोगायतन शरीरधारी जीव का ब्रह्म के साथ अभेद संबंध संभवित नहीं हैं। जो ब्रह्म और जीव के बीच अभेद हैं, वह मोक्षावस्था के अभिप्राय से हैं । जब जीव ज्ञान से अज्ञानजन्य शरीर के सुख-दुःखों का मोह परित्याग कर देता हैं तथा शुद्ध चेतनांश से "अहं ब्रह्मास्मि' इत्याकारक अनुभूति करके आत्मारामी बन जाता हैं, तब उसकी मुक्ति होती हैं। इसलिए ही "मृत्तिकैव सत्यम्"इस श्रुतिवाक्य के माध्यम से घटरुपजीवत्व का अपवाद करके मृत्तिकारुप आत्मा के सत्यत्व का प्रतिपादन किया हैं। मृदंशवान् घट का, मूत्तिका के साथ अभेद बताकर जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन किया हैं। उपरांत मोक्ष का स्वरुप ज्ञानगत हैं, सत्तागत नहीं हैं। क्योंकि, जब हमको ज्ञान होता हैं कि, यह सर्प नहीं हैं, परंतु रज्जु हैं, तब सर्पजन्य भय आदि दूर हो जाता हैं और शांति मिलती हैं। वह शांति ज्ञानजन्य हैं। इसलिए उसमें कभी भी कोई विकार नहीं होता हैं। इसलिए मोक्ष सर्व प्रकार की विक्रियाओं से रहित हैं। (विक्रियारहितम्) । सत्तागत उपलब्धि तो क्रियाजन्या हैं, जो मीमांसको को इष्ट हैं। वेदांत में तो क्रियाकारक संबंध से पृथक ब्रह्मतत्व हैं, जिसमें शब्दो का भी अपलाप संभव नहीं हैं, तो फिर क्रियाओं के द्वारा किस तरह से मोक्ष साध्य हो सकता हैं ?(१०१) (इस विषय की विशेष स्पष्टता अन्य ग्रंथो से जान लेना। ) ___ मोक्ष की प्राप्ति का फल हैं नित्यतृप्तत्व । अर्थात् मोक्षावस्था में नित्यतृप्ति होती हैं। संसारावस्था में पौद्गलिक (९९) तस्मात् कूटस्थनित्यतयैव पारमार्थिकी न परिणामीनित्यत्वसिद्धि (भामती- शा.भा.१.१.४) । (१००) हाटकमेव वस्तुसन्न कटकादयः भेदस्याप्रतिभासमानात् । अथ हाटकत्वेनैव अभेदो न कटकत्वेन, तेन तु भेद एव कुण्डलादेः । भामती- शा.भा.१.१.४ (१०१) क्रियानिष्पाद्यस्य तु मोक्षस्यानित्यत्वं प्रसञ्जयति-कल्पतरु १.१.४ अक्रियार्थत्वेऽपि ब्रह्मस्वरुपविधिपरा वेदान्ताः भविष्यति-भामती १.१.४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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