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________________ ३७६ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन • मुक्ति-मोक्ष विचार :- सभी आस्तिक दर्शनो का अंतिम लक्ष्य संसार के बंधनो से मुक्ति हैं। सभी दर्शनकार आत्मा को संसार के बंधनो से मुक्त कराके मोक्ष तक पहुंचाने की साधना प्रक्रिया अपने अपने ग्रंथो में अपने दर्शन की शैली अनुसार बताते हैं। प्रत्येक का दृष्टिकोण भिन्न होने के कारण मोक्ष की साधना और मोक्ष के स्वरुप में परस्पर भिन्नता दिखाई देती हैं। किसका दृष्टिकोण सच्चा हैं और किसका दृष्टिकोण गलत हैं वह अभी सोचना नहीं हैं । यहाँ अद्वैतवेदांत अनुसार मोक्ष का स्वरुप और मुक्ति के प्रकार देखेंगे। • मुक्ति का स्वरुप :- श्री शंकराचार्य ने अपने शारीरिक भाष्य में मोक्ष का स्वरुप इस तरह से बताया हैं - "इदं तु पारमार्थिकं कूटस्थनित्यं व्योमवत्सर्वव्यापि-सर्वविक्रियारहितं नित्यतृप्तं निरवयवं स्वयंज्योतिस्वभावम् । यत्र धर्माधर्मी सह कार्येण कालत्रयं च नोपावर्तेते। (ब्र. सू. शां. भा. १-१-४)" ___ यह मुक्ति पारमार्थिक हैं.... कूटस्थ नित्य हैं... आकाशवत् सर्वव्यापी हैं... समस्त विकारो से रहित हैं... नित्यतृप्तनित्यानंद स्वरुप हैं... अवयवरहित हैं तथा स्वयंप्रकाश स्वभावक हैं... ऐसी मुक्ति अवस्था में धर्म और अधर्म अपने फल ऐसे सुख-दुःख के साथ तीनो काल में कभी नहीं पहुंच शकते हैं, संबंध नहीं रखते हैं। इस प्रकार मुक्ति का कभी नाश नहीं होता हैं । मुक्ति प्राप्त करने के बाद जीव कृतकृत्य हो जाता हैं । जहाँ जीव पूर्णता से और तृप्ति से युक्त होता हैं । निःसीम क्षेत्र में पहुंच जाता हैं । मुक्ति के बाद धर्म-अधर्म जैसा कुछ रहता नहीं हैं, इसलिए उसके फलरुप सुख और दुःख भी नहीं रहते हैं। जीव और ब्रह्म का अभेदज्ञान ही मोक्ष कहा जाता हैं। जब उन दोनों का अभेद ज्ञान होता हैं, तब जीव तो अनादिकाल से ब्रह्मस्वरुप हैं, इस बात की प्रतीति होती हैं। ___ पारमार्थिक रीति से सोचे तो वेदांत में आत्मा नित्यमुक्त हैं। इसलिए मुक्ति कोई उत्पन्न होती वस्तु नहीं हैं। मोक्ष तो वास्तविक रुप में अपने स्वरुप का ज्ञान मात्र हैं, जिसको प्राप्त करने में कोई नवीनता नहीं हैं, परंतु अविद्या या अज्ञान के कारण खडे हुए संसार के बंधनो से बद्ध जीव में जो सत्य अदृश्य हो गया था, उसको पुनः प्राप्त कर लेना वही मुक्ति हैं, जिसमें विलुप्त चेतना पुनः प्राप्त हो जाती हैं। दूसरी तरह से कहे तो स्वरुपज्ञान-ज्ञानप्राप्ति या ब्रह्मसाक्षात्कार वही मुक्ति हैं। इसलिए ही श्रीशंकराचार्य ने शांकरभाष्य में कहा हैं : "ब्रह्मैव मुक्त्यवस्था" (३.३.३२) उसी अर्थ में गीता ने भी कहा हैं कि, "ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ।" __ स्वरुपज्ञान में बाधक तत्त्व अज्ञान हैं। उस अज्ञान का संपूर्ण नाश हो तब मुक्ति होती हैं। इसलिए मोक्षावस्था में अज्ञान का लेशमात्र भी संभव नहीं हैं। ब्रह्म देश, काल, कार्य, कारण आदि से सर्वथा असम्पृक्त हैं अतीत हैं। और जब जीव का मोक्ष होता हैं, तब वह ब्रह्म के साथ अभेद संबंध स्थापित कर लेता हैं इसलिए जीव की मोक्षावस्था में देश काल जन्य कोई संघटना या कार्य-कारण जन्य कोई संबंध ही रहता नहीं हैं। मोक्ष तो सर्व प्रकार के विचार विकल्प और कोटीयों से पर वस्तु हैं, और परमार्थ हैं ।(९८) ___ मोक्ष कूटस्थनित्य हैं । नित्यता दो प्रकार की होती हैं। एक परिणामि और दूसरी कूटस्थ । परिवर्तनशील होने के साथ नित्यधर्मा हो उसे परिणामि नित्यता कही जाती हैं और अपरिवर्तनशील नित्यता को कूटस्थ (९८) न च देशकालनिमित्ताद्यपेक्षत्वं व्यवस्थितात्मवस्तुविषयत्वादात्मज्ञानस्य । (शा.भा. ४.५.१५) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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