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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ३७५ प्रामाण्यवाद :- वेदांत मत में पहले बताये अनुसार ये प्रत्याक्षादि छः प्रमाण हैं। ये छ: प्रमाण से छ: प्रकार की प्रमा (ज्ञान) होती हैं। इन प्रमाओं का प्रामाण्य स्वतः ही अर्थात् उस ज्ञान से ही उत्पन्न होता हैं और मालूम पडता हैं। वह इस प्रकार से स्मृति और अनुभव के लिए साधारण और संवादि प्रवृत्ति (सफल प्रवृत्ति) के लिए अनुकूल प्रमात्व अर्थात् तद्वान् पदार्थ में तत्प्रकारक ज्ञान होना वह प्रामाण्य हैं और प्रामाण्य ज्ञानसामान्य की सामग्री का ही कार्य हैं, उसके लिए उससे अधिक गुण की अपेक्षा नहीं रहती हैं। क्योंकि, समस्त प्रमाओ में अनुगत रहनेवाला कोई गुण नहीं हैं। इस तरह से वेदांतमत में प्रमा का प्रामाण्य स्वतः ही उत्पन्न होता हैं और स्वतः ही ज्ञात होता हैं । अर्थात् प्रामाण्य की उत्पत्ति और ज्ञप्ति स्वतः ही होती हैं । (९६) अप्रामाण्य ज्ञानसामान्य की सामग्री का कार्य नहीं हैं। अर्थात् ज्ञानसामान्य की सामग्री से प्रयोज्य नहीं हैं। अन्यथा ज्ञानसामान्य की सामग्री से प्रयोज्य प्रमा में भी अप्रामाण्य की आपत्ति आयेगी परंतु अप्रामाण्य दोष से प्रयोज्य हैं अर्थात् अप्रामाण्य दोष का कार्य हैं। (अप्रमाण्यं तु न ज्ञान सामान्य-सामग्री प्रयोज्यम्, प्रमायामप्यप्रमाण्यापत्तेः। किन्तु दोष प्रयोज्यम् । (वे. परिभाषा ।) - प्रामाण्य के दो प्रकार :- एवं निरुपितानां प्रमाणानां प्रामाण्यं द्विविधम् व्यावहारिकतत्त्वावेदकत्वं पारमार्थिकतत्त्वावेदकत्वं चेति । तत्र ब्रह्मस्वरुपावगाहिप्रमाणव्यतिरिक्तानां सर्वप्रमाणानामाद्यं प्रामाण्यम् , तद्विषयाणां व्यवहारदशायां बाधाभावात् द्वितीयं तु जीवब्रह्मैक्यपराणां "सदेव सोम्येदमग्र आसीत्" (छा. ६-२-१) इत्यादीनां "तत्त्वमसि' (छा.६-८-१) इत्यन्तानाम् । तद्विषयस्य जीवपरैक्यस्य कालत्रयाबाध्यत्वात् (वे. प. विषय परिच्छेद) - इस प्रकार निरुपति किये गये प्रमाणो का प्रामाण्य दो प्रकार का हैं । (१) व्यावहारिक तत्त्व का आवेदक (ज्ञान करानेवाला) और (२) पारमार्थिक तत्त्व का आवेदक (ज्ञान करानेवाला) उसमें ब्रह्मस्वरुप के अवगाही (बतानेवाले) प्रमाण से अतिरिक्त अन्य प्रमाणो में प्रथम व्यावहारिक प्रामाण्य होता हैं। क्योंकि, उसके विषय व्यवहारदशा में बाध नहीं होते हैं। परंतु जीव और ब्रह्म को एक बतानेवाले "सदेव...'' "तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्यो में द्वितीय (पारमार्थिक) प्रामाण्य होता हैं। क्योंकि, जीव-ब्रह्म-ऐक्यरुप विषय तीनो काल में अबाध्य रहता हैं। कहने का आशय यह हैं कि, विषय बाधित न होना, यह (९७प्रामाण्य का लक्षण ह । ब्रह्मबोधक प्रमाण से भिन्न प्रमाणो का विषय व्यवहार दशा में ही अबाधित होता हैं। जब ब्रह्म का अपरोक्ष ज्ञान होने पर "जगत मिथ्या हैं" ऐसा ज्ञान होने से उसका बाध होता हैं। इसलिए उसका प्रामाण्य व्यावहारिक ही रहता हैं। परंतु उससे विपरीत "तत्त्वमसि' इत्यादि श्रुतियों से प्रतिपादन किया हुआ जीव-ब्रह्म-ऐक्य कभी भी बाधित नहीं होता हैं। इस कारण से ब्रह्मबोधक प्रमाणो में प्रामाण्य होने से जीव-ब्रह्मैक्य वाक्य ही परमार्थतः प्रमाण हैं। इस अनुसार से प्रमाण विषयक विचारणा पूर्ण होती हैं। प्रमाण के विषय में (प्रमाण के भेद, उसके लक्षण, प्रमाण का सामान्य लक्षण, प्रामाण्यविचार आदि विषयो में) दार्शनिक जगत में अनेक प्रकार के मतभेद हैं । यहाँ वेदांत दर्शन की मान्यता का वर्णन किया हैं। (९६) एवमुक्तानां प्रमाणानां प्रामाण्यं स्वत एवोत्पद्यते ज्ञायते च। तथाहि स्मृत्यनुभवसाधारणसंवादिप्रवृत्यनुकूल तद्वति तत्प्रकारक ज्ञानत्वं प्रामाण्यम् । तच्च ज्ञानसामान्यसामग्री प्रयोज्यं, न त्वधिकं गुणमपेक्षते प्रमामात्रेऽनुगतगुणाभावात् । (९७) अबाधितार्थविषयकज्ञानत्वं प्रमात्वम् इत्यत्र अबाधितपदेन व्यवहारकालाबाधित्वस्यैव ग्रहणात् सर्वेषामपि प्रमाणानां प्रामाण्यं समानम् । व्यावहारिकतत्त्वावेदकत्वम् व्यवहारकालाबाध्यसत्त्वावगाहिज्ञानजनकत्वम् । पारमार्थिकतत्त्वावेदकत्वम् कालत्रयाबाध्यसत्त्वावगाहिज्ञानजनकत्वम्। Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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