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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
( ६ ) अनुपलब्धि प्रमाण :- ज्ञानकरणाजन्याभावानुभवासाधारणकारणमनुपलब्धिरुपं प्रमाणम् । व्याप्तिज्ञान, सादृश्यज्ञान, तात्पर्ययुक्तशब्दज्ञान और उपपाद्यज्ञान यह ज्ञानरूप करणो से अजन्य जो अभाव विषयक अनुभव हैं उसके असाधारण कारण को अनुपलब्धि प्रमाण कहा जाता हैं ।
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वेदांत मत में किसी भी विषय के अभाव का जो साक्षात् ज्ञान होता हैं, वह अनुपलब्धि प्रमाण से होता हैं। पूर्वोक्त प्रत्यक्षादि पांचो प्रमाण भाव पदार्थो की उपलब्धि के जनक हैं, परंतु अभाव की उपलब्धि के जनक नहीं हैं। इसलिए अभाव की उपलब्धि के जनक अनुपलब्धि को वेदांतीओ ने स्वतंत्र प्रमाण के रुप में स्वीकार किया हैं । इस विषय की विशेष चर्चा वेदांतपरिभाषा से जान लेना ।
अवसर प्राप्त अभाव के चार प्रकार का वर्णन वेदांत परिभाषा के अनुपलब्धि परिच्छेद में किया हैं, वह संक्षिप्त में देखेंगे। अनुपलब्धि प्रमाण के प्रमेयभूत अभाव के चार प्रकार हैं- (१) प्रागभाव, (२) प्रध्वंसाभाव, (३) अत्यंताभाव और (४) अन्योन्याभाव (भेद) ।
घटादि के कारणभूत मृत्पिंडादि में उत्पत्ति से पूर्व (प्राक्) घटादि कार्य का जो अभाव रहता हैं, वह प्रागभाव हैं । और वह 'भविष्यति' भविष्य में होगा इत्याकारक प्रतीति का विषय होता हैं । अर्थात् यह (९२) प्रागभाव "इह मृत्पिण्डे घटो भविष्यति” ऐसे प्रकार की प्रतीति का विषय बनता हैं ।
वही मृत्पिंड में घट का मुद्गरपातादि से अनन्तर जो अभाव होता हैं, वह (९३) प्रध्वंसाभाव हैं।
जिस अधिकरण में किसी भी वस्तु का तीनों काल (भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों काल) में अभाव प्रतीत हो उसे (९४) अत्यन्ताभाव कहा जाता हैं। जैसे कि, वायु में रूपात्यन्ताभाव ।
'यह, यह नहीं हैं' ऐसी प्रतीति का विषय जो अभाव बनता हैं, उसको "अन्योन्याभाव" कहा जाता हैं। अर्थात् एक वस्तु में उससे भिन्न अन्य किसी वस्तु का अभाव अन्योन्याभाव हैं । "यह घट, पट नहीं हैं, " यहाँ घट में भी पट का अभाव प्रतीत होता हैं, वह अन्योन्याभाव को बताते हैं । (९५) विभाग, भेद, पृथक्त्व शब्दो से अन्योन्याभाव का व्यवहार होता हैं। क्योंकि विभागादि को अन्योन्याभाव से भिन्न मानने में प्रमाण नहीं हैं। यह अन्योन्याभाव का अधिकरण यदि सादि (उत्पत्तिमत्) हो तो वह सादि जानना और अधिकरण अनादि हो तो वह अनादि जानना । जैसे कि, जीव में ब्रह्म का भेद या ब्रह्म में जीव का भेद ।
पुन: भेद दो प्रकार का हैं । (१) सोपाधिक और (२) निरुपाधिक। उन दोनों में जिन की सत्ता, उपाधि की सत्ता से व्याप्य होता हैं, उसे सोपाधिक भेद कहा जाता हैं। और ऐसी सत्ता से रहित जो भेद, वह निरुपाधिक भेद हैं। उसमें प्रथम भेद का उदाहरण :- एक ही आकाश के घटादि उपाधि के भेद से जो (घटाकाश, मठाकाश, पटाकाश आदि) भेद होते हैं, वह सोपाधिक भेद हैं । उसी ही तरह से एक ही ब्रह्म के अंत:करण के भेद से जो भेद होता हैं, वह भी सोपाधिक भेद ही होता हैं। "घट में पट का भेद" यह दूसरा निरुपाधिक भेद हैं । इस तरह से छः प्रमाणो के संक्षिप्त में स्वरुप - भेद आदि देखें । विशेष जिज्ञासुओं को वेदांत परिभाषा आदि ग्रंथो का आलोकन करने का परामर्श हैं ।
( ९२ ) तत्र मृत्पिण्डादौ कारणे कार्यस्य घटादेरुत्पत्तेः पूर्वं योऽभावः स प्रागभावः, स च भविष्यतीति प्रतीतिविषयः । ( ९३ ) तत्रैव घटस्य मुद्गरपातानन्तरं योऽभावः स प्रध्वंसाभावः । ध्वंसस्यापि स्वाधिकरणकपालनाशे नाश एव । ( ९४ ) यत्राधिकरणे यस्य कालत्रयेऽप्यभावः सोऽत्यन्ताभाव: । यथा वायौ रुपात्यन्ताभाव: । ( ९५ ) इदमिदं नेति प्रतीतिविषयोऽन्योन्याभाव: । अयमेव विभागो भेदः पृथक्त्वं चेति व्यवह्रियते । (वेदांत परिभाषा)
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