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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन रात्रिभोजनमुपपादकम् । - उपपाद्य (कार्य) के ज्ञान से उपपादक (कारण) की कल्पना करना उसे अर्थापत्ति कहा जाता हैं । उपपाद्यज्ञान करण हैं और उपपादकज्ञान फल हैं। (प्रथम को (८९) अर्थापत्ति प्रमाण कहा जाता हैं और दूसरे को अर्थापत्ति प्रमा कहा जाता हैं।) ३७३ जिसके (जो कारण) बिना जो (वस्तु) अनुपपन्न रहती हैं, वह वस्तु वहाँ उपपाद्य हैं और जिसके अभाव में जिसकी अनुपपत्ति होती हैं, वह वहाँ उपपादक हैं। जैसे कि रात्रिभोजन के बिना दिन में न खाते हुए व्यक्ति का पीनत्व (स्थूलत्व-हष्टपुष्टत्व) अनुपपन्न रहता हैं । वहाँ तादृशपीनत्व उपपाद्य हैं और रात्रीभोजन के अभाव में तादृशपीनत्त्व की अनुपपत्ति होती हैं, इसलिए वहाँ रात्रीभोजन उपपादक हैं। सारांश में, दिन में न खाते व्यक्ति के पीनत्व के ज्ञान से (उपपाद्य के ज्ञान से ) रात्रिभोजनरुप कल्पना की जाती हैं, उसे अर्थापत्ति कहा जाता हैं । उपरांत, अर्थापत्ति के दो प्रकार हैं (९०) (१) दृष्टार्थापत्ति और (२) श्रुतार्थापत्ति । चक्षुरिन्द्रिय आदि इन्द्रियो के द्वारा हुआ विषय अनुपपन्न होने पर उपपादक विषय की कल्पना की जाये उसको ‘“दृष्टार्थापत्ति” कहा जाता हैं। जैसे कि, “देवदत्त दिन में खाता नहीं हैं और (फिर भी) स्थूल हैं" यहाँ देवदत्त का स्थूलत्व प्रत्यक्ष हैं। परन्तु वह दिन में खाता हुआ दिखाई नही देता हैं। इसलिए अनुपपन्न हैं । इसलिए देवदत्त के स्थूलत्व की संगति के लिए " रात्रिभोजन " इस उपपादक अर्थ - विषय की कल्पना की जाती हैं। जहाँ श्रूयमाण (सुनाई देते) वाक्य में स्वार्थ की अनुपपत्ति होने के कारण अर्थान्तर की कल्पना की जाती हैं, उसे श्रुतार्थापत्ति कही जाती हैं। जैसे कि, "जीवित देवदत्त घर में नहीं हैं" इस वाक्य को सुनने से देवदत्त के बहिर्सत्त्व अर्थ की कल्पना की जाती हैं, वह श्रुतार्थापत्ति हैं । पुनः श्रुतार्थापत्ति के दो भेद हैं (९१) । (१) अभिधानानुपपत्ति और अभिहितानुपपत्ति । जहाँ वाक्य के एकदेश के श्रवण से अन्वय की अनुपपत्ति होने पर अन्वयाभिधानोपयोगी किसी दूसरे पद की कल्पना की जाती हैं, वहाँ अभिधानानुपपत्ति नामक श्रुतार्थापत्ति हैं । जैसे कि, केवल "द्वारम्” यह शब्द सुनते ही अन्वय की उपपत्ति नहीं होती हैं, इसलिए अन्वय की उपपत्ति के लिए "पिधेहि" पद का अध्याहार किया जाता हैं, वह अभिधानानुपपत्ति नामक श्रुतार्थापत्ति हैं । जहाँ वाक्य से अवगत (मालूम हुआ) अर्थ स्वयं अनुपपन्न रुप से ज्ञात होकर दूसरे अर्थ की कल्पना कराता हैं, वह अभिहितानुपपत्ति श्रुतार्थापत्ति कहा जाता हैं। जैसे कि, "ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत्" इस विधिवाक्य में ज्योतिष्टोम को स्वर्ग के साधन के रुप में बताया जाता हैं, वह अवगत होने पर भी एक अनुपपति रहती हैं कि, अल्पकालीन (क्षणिक) यज्ञ साक्षात् रुप से स्वर्ग का साधन नहीं हैं। इसलिए उस अनुपपत्ति के परिहार के लिए मध्यवर्ती ‘“अपूर्व” का अध्याहार होता हैं। (अर्थात् ज्योतिष्टोम से पुण्य होता है और उससे स्वर्ग मिलता हैं।) विशेष में, अर्थापत्ति की अतिरिक्त प्रमाण के रुप में सिद्धि वेदांतपरिभाषा से जान लेना । तदुपरांत अर्थापत्ति प्रत्यक्षादि छ: प्रमाणपूर्विका होती है। उसका सोदाहरण निरुपण प्रस्तुत ग्रंथ के श्लो-७५ की टीका में किया है। वहाँ से देख लेना। अब अनुपलब्धि प्रमाण की विचारणा करेंगे। (८९) 'अर्थस्य-रात्रिभोजनरूपस्य उपपादकज्ञानस्य आपत्तिः कल्पना (रात्रिभोजनकल्पनमेव) अर्थापत्तिप्रमा' तथा 'अर्थस्य रात्रिभोजनरुपस्य उपपादकज्ञानस्य कल्पना यस्मात् (करणात्) तदेवार्थापत्तिप्रमाणम् ।' (९०) दोनों प्रकार की विशेष चर्चा वेदांतपरिभाषा-अर्थापत्ति परिच्छेद में से देखे । (९१) दोनों प्रकार की विशेष चर्चा वेदांतपरिभाषा - अर्थापत्ति परिच्छेद में से देखे। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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