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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
नैयायिक दर्शन के प्रवर्तक श्री गौतमऋषि हैं । उन्हों ने "न्यायसूत्र" ग्रंथ में अपने मत की प्ररूपणा की हैं। देवता :
नैयायिक दर्शन में विभु, नित्य, एक, सर्वज्ञ, नित्यबुद्धि के आश्रय (नित्यज्ञानवाले), जगत का सर्जन करनेवाले और विसर्जन करनेवाले देव "शिव" हैं ।(५७) “ईश्वरकर्तृत्ववाद" नैयायिक दर्शन का एक विशिष्ट सिद्धांत हैं । नैयायिक दर्शन ईश्वर को जगत का कर्ता मानता हैं, इस सिद्धांत की पुष्टि के लिए उन्होंने अनुमान प्रयोग का सहारा लिया हैं ।५८)
ईश्वर कर्तृत्ववाद और ईश्वर के विभु आदि विशेषणो की सार्थकता की चर्चा प्रस्तुत ग्रंथ के श्लोक-१३ की टीका में की हैं । ईश्वर कर्तृत्ववाद में अन्य दर्शनोने बहोत विरोध उठाये हैं । तदुपरांत प्रति अनुमानो के द्वारा उनके द्वारा निर्दिष्ट अनुमानो को खंडित भी किये हैं । फिर भी नैयायिक दर्शनकारोने ईश्वर कर्तृत्ववाद की प्रतिष्ठा के लिए भरपुर युक्तियाँ देने का प्रयत्न किया हैं । उसके सामने अन्य दर्शनकारोने उस युक्तियों का खंडन करती अन्य बहोत युक्तियाँ दी हैं । ईश्वर कर्तृत्व के पुरस्कर्ता और उसके विरोधी पक्ष के अनुमान तथा युक्तियाँ ग्रंथो में विद्यमान हैं । दोनों पक्ष की दलीलो के उपर विस्तृत चिंतन करके परीक्षक वर्ग वास्तविकता के निकट पहुँचे यह आवश्यक हैं । यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, जैनदर्शन ईश्वर कर्तृत्ववाद को स्पष्ट शब्दो में नकारता हैं । पूर्व मीमांसादर्शन और सांख्य दर्शन भी उसका विरोध करता हैं । योगदर्शन समाधि की सिद्धि के लिए ईश्वर की उपासना को आदरणीय कहते हैं । परन्तु नैयायिकदर्शन की मान्यता उसको मान्य नहीं हैं । तत्त्वमीमांसा :
नैयायिक दर्शन ने प्रमाणादि सोलह तत्त्वो का स्वीकार किया हैं और सोलह तत्त्वो के ज्ञान से निःश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति होती है, ऐसा न्यायसूत्र में बताया हैं ।(५९) वे सोलह तत्त्व इस प्रकार से हैं - (१) प्रमाण, (२) प्रमेय, (३) संशय, (४) प्रयोजन, (५) दृष्टांत, (६) सिद्धांत, (७) अवयव, (८) तर्क, (९) निर्णय, (१०) वाद, (११) जल्प, (१२) वितंडा, (१३) हेत्वाभास, (१४) छल, (१५) जाति और (१६) निग्रहस्थान ।
"पदार्थ की उपलब्धि में जो कारण बनता हैं, उसे प्रमाण कहा जाता हैं ।" यह प्रमाण का सामान्य लक्षण हैं । प्रमाण चार प्रकार के हैं । (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) उपमान और (४) शब्द ।(६०)
यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, ज्ञान के मुख्य दो भेद हैं । स्मृति और अनुभव । जो संस्कार मात्र जन्य हैं वह 'स्मृति' हैं और उससे भिन्न जितने ज्ञान है उन सभी का अन्तर्भाव 'अनुभव' में होता हैं । अनुभव के दो प्रकार हैं । यथार्थ अनुभव और अयथार्थ अनुभव । यथार्थ अनुभव के मुख्य दो भेद हैं । एक साक्षात्कारी (उ प्रत्यक्ष) यथार्थ अनुभव और दूसरा परोक्ष यथार्थ अनुभव । साक्षात्कारी यथार्थ अनुभव प्रत्यक्ष ज्ञान हैं । जब कि परोक्ष - यथार्थ अनुभव में अनुमान ज्ञान, उपमान ज्ञान और शब्दज्ञान का अन्तर्भाव होता हैं । अयथार्थ अनुभव के तीन भेद हैं - संशय, भ्रम और तर्क ।(६१) 57. अक्षपादमते देवः सृष्टिसंहारकृच्छिवः । विभुनित्यैकसर्वज्ञो नित्यबुद्धिसमाश्रयः ।।१३।। (षड्.समु.)58. भूभूधरसुधाकरदिनकरमकरादिकं
बुद्धिमत्पूर्वकं कार्यत्वात् । (षड्.समु.) क्षित्याङ्कुरादिकं सकर्तृकं कार्यत्वात् । (न्याय सिद्धान्तमुक्तावली) । 59. प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासछलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानानिः श्रेयसाधिगमः (न्यायसूत्र-१-१-१) । 60. अर्थोपलब्धिहेतुः स्यात्प्रमाणं तच्चतुर्विधम् ।। (षड्.समु. श्लोक-१६) । 61. बुद्धिानम् । सा द्विधा - स्मृतिरनुभवश्च । ...स (अनुभव:) द्विविध:-यथार्थोऽयथार्थश्च । ...यथार्थानुभवश्चतुर्विधः प्रत्यक्षानुमित्युपमितिशाब्दभेदात् । अयथार्थानुभवस्त्रिविधिः - संशयविपर्ययतर्कभेदात् । (तर्कसंग्रह)।
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