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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
श्री धर्मकीर्ति श्री वसुबंधु के शिष्य श्री धर्मपाल के शिष्य थे । श्री धर्मकीर्ति के ग्रंथ तर्कबद्ध थे । उनके प्रधान ग्रंथ हैं
(१) प्रमाणवार्तिक (सवृत्ति), (२) न्यायबिंदु, (३) प्रमाण विनिश्चय, (४) संतानंतरसिद्धि, (५) वादन्याय, (६) हेतुबिंदु, (७) संबंध परीक्षा और (८) चोदना प्रकरण । योगाचार के समर्थक आचार्य श्री प्रज्ञाकर गुप्तने "प्रमाणवार्तिकालंकार" ग्रंथ की रचना की थी । इस तरह से योगाचार मत के ग्रंथ है । श्रीदिङ्नाग और श्री धर्मकीर्ति के ग्रंथ दार्शनिक ग्रंथो की कोटि में आते हैं । आलय विज्ञान' के विषय में योगाचार मत के विशिष्ट सिद्धांत की विस्तृत चर्चा बौद्धदर्शन-निरुपणोत्तर विशेषार्थ में की हैं ।
- माध्यामिक - शून्यवाद मत के ग्रंथ-ग्रंथकार : शून्यवाद-माध्यमिक संप्रदाय के प्रस्थापक और प्रचारक श्री नागार्जुन आचार्य है । उनका प्रधान ग्रंथ "माध्यमिक कारिका" है, जो २७ प्रकरणो में विभक्त हैं । इस ग्रंथ में शून्यवाद की प्रतिष्ठा की गई है । (“माध्यमिक कारिका" के उपर श्री भव्यकृत “प्रज्ञाप्रदीप" और श्री चन्द्रकीर्ति विरचित “प्रसन्नप्रदा" मुख्य दो टीका है।) श्री नागार्जुन के प्रायः २० ग्रंथ हैं । वे सभी तर्कगर्भित है । माध्यमिक कारिका उपरांत दशभूमिविभाषाशास्त्र, महाप्रज्ञापारमिताशास्त्र, उपायकौशल्य, प्रमाणविध्वंसन, विग्रहव्यावर्तनी, चतुःस्तव, युक्तिषष्टिका, शून्यता सप्तति, प्रतीत्यसमुत्पाद हृदय, महायानविंशक और सहल्लेख : ये ग्रंथ भी नागार्जन की रचना है ।
माध्यमिक संप्रदाय के श्री आर्यदेवने 'चतुःशतक' नामका दार्शनिक ग्रंथ रचा है और श्री स्थविर बुद्धिपालितने "माध्यमिक कारिका" के उपर टीका लिखी है । श्री भावविवेकाचार्य बौद्ध न्याय के "स्वतंत्रमत" के उद्भावक थे। उन्होंने (१) प्रज्ञाप्रदीप (भा.का.की. टीका), (२) मध्यम हृदय कारिका, (३) मध्यमार्थ-संग्रह और (४) हस्तरत्न ग्रंथ की रचना की थी । तदुपरांत श्री चन्द्रकीर्तिने (१) माध्यमिकावतार और (२) प्रसन्नप्रदा (मा.का.की.टीका) : इन दो ग्रंथो की रचना की थी, उसकी बहोत विख्याति हुई थी। श्री शांतरक्षित का प्रसिद्ध ग्रंथ "तत्त्व संग्रह" है । उसमें ब्राह्मण दार्शनिको के मत की विस्तृत समीक्षा करके बौद्ध सिद्धान्तो की पुष्टि की गई हैं । प्रौढ और प्रमेय बहुल ग्रंथ है । श्री कमलशीलने उसके उपर "तत्त्वसंग्रह पंजिका" नाम की टीका लिखी हैं ।
इस तरह से बौद्धदर्शन के देवता, तत्त्व, प्रमाण, सिद्धांत, चार निकाय और दार्शनिक ग्रंथ-ग्रंथकार आदि का आंशिक परिचय हमने देखा । उन सभी विषयो की विस्तृत जानकारी प्रस्तुत ग्रंथ की टीका और दर्शन निरुपणोत्तर दिये गये विशेषार्थ में मिलेगी । अब नैयायिक दर्शन के देवतादि का परिचय प्राप्त करेंगे । नैयायिक दर्शन :
प्रमाणो के द्वारा अर्थ की (पदार्थ की) परीक्षा करना, उसे न्याय कहा जाता है । न्याय के दर्शन को न्यायदर्शन (नैयायिकदर्शन) कहा जाता हैं । यह न्यायशास्त्र - आन्वीक्षिकी विद्या, न्यायविद्या, हेतुविद्या, हेतुशास्त्र, तर्कविद्या, वादविद्या, प्रमाणशास्त्र और फक्किका शास्त्र के नाम से भी पहचाना जाता है अर्थात् ये सभी न्यायशास्त्र के ही अन्य नाम हैं । प्रत्यक्ष और शब्द द्वारा जिस पदार्थ को एक बार देखा-सुना है, उसका अन्वेक्षण करना उसे अन्वीक्षा कहा जाता हैं
और अन्वीक्षा द्वारा प्रवर्तमान जो विद्या है, उसे आन्वीक्षिकी विद्या कही जाती हैं ।(56) 56. (१) प्रमाणैरर्थपरीक्षणम् - न्यायः । एतेनेदमेवाऽऽयाति यत् - समस्तप्रमाणव्यापारादर्थाऽधिगतिन्याय: (न्यायवार्तिक-१-१-१
(पृ. १४) (२) इदमेव न्यायशास्त्रम् आन्वीक्षिकाविद्याशब्देनापि प्रोच्यते । (दर्शनशास्त्रस्येतिहासः) (३) आन्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रं हेतुविद्या हेतुशास्त्रं तर्कविद्या वादविद्या प्रमाणशास्त्रं फक्किकाशास्त्रमित्यनर्थान्तरम् । (अवयवप्रकरण-प्रस्तावना एस.बी. रघुनाथाचार्य, तिरूपति) (४) प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्य अन्वीक्षणमन्वीक्षा । तया प्रवर्तते इत्यान्वीक्षिकी" (वात्स्यायनकृत न्यायभाष्य)।
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