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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका ग्रंथ की रचना हुई । उसमें आचार संबंधी विवेचन है और सुत्तपिटक के अन्तर्गत जो “मातिका" ( मात्रिका उदार्शनिक अंश) के पल्लवीकरण से 'अभिधम्मपिटक' की रचना हुई, जिसमें दार्शनिक विषयो का विवेचन हैं । तदुपरांत, श्रीनागसेन कृत "मिलिंदप्रश्न " ग्रंथ है, जो त्रिपिटक की तरह ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है । जिसमें त्रिपिटक के तीन विषयो को बुनकर उदाहरणपूर्वक निरुपण किया गया है । अब बौद्धों की प्रत्येक निकाय के ग्रंथ एवं ग्रंथकार के विषय में थोडी सी माहिती पेश करते हैं । • वैभाषिक मत के ग्रंथ-ग्रंथकार : वैभाषिक संप्रदाय का सर्वमान्य ग्रंथ श्री कात्यायनी पुत्र रचित 'अभिधर्मज्ञानप्रस्थान शास्त्र' है । यह ग्रंथ ८ परिच्छेद, ४४ वर्ग तथा १५ हजार श्लोक प्रमाण है । इस ग्रंथ के उपर " अभिधर्मविभाषाशास्त्र" नामक एक भाषा ग्रंथ की रचना हुई थी । वैभाषिक संप्रदाय के आचार्य श्री वसुबन्धु का " अभिधर्मकोश" ग्रंथ वैभाषिक मत की मान्यताओं को बतानेवाला प्रामाणिक और मौलिक ग्रंथ हैं । श्री सर्वभद्र, श्री वसुबन्धु के प्रतिस्पर्धी बौद्धाचार्य थे। उन्होंने 'कोशकरका' नाम के ग्रंथ की रचना करके वसुबंधु के मतो का खंडन किया हैं । तदुपरांत "समय प्रदीपिका " वैभाषिक सिद्धांतो का साररुप ग्रंथ है। श्री वसुबन्धुने सांख्य सप्तति का खंडन करने के लिए "परमार्थ सप्तति" ग्रंथ की रचना की थी । ४३ • सौत्रान्तिक मत के ग्रंथ-ग्रंथकार : सौत्रान्तिक मत के स्थापक " श्रीकुमारलात" है । (वे शून्यवादि नागार्जुन के समकालीन थे ।) "कल्पना मण्डितिका" नाम का एक ग्रंथ उन्हों ने रचा था । श्री कुमारलात के शिष्य श्रीलातने "विभाषाशास्त्र” नाम का एक ग्रंथ रचा था । श्री धर्मत्रात और श्री बुद्धदेव, ये दो आचार्यो के अनेक सिद्धांतो का उल्लेख " अभिधर्मकोश" में किया गया हैं । उनके स्वतंत्र कोई ग्रंथ नहीं हैं। श्री सुमित्रने अष्टादश निकायों के वर्णन के लिए "समभेदउपरचन चक्र" नाम का पुस्तक लिखा है । श्री यशोमित्र भी सौत्रान्तिक मत के समर्थक थे । 'अभिधर्म कोश' की " स्फुटार्था वृत्ति" में ऐसा उल्लेख दिखाई देता । है । योगाचार मत के ग्रंथ-ग्रंथकार : योगाचार विज्ञानवाद के प्रस्थापक " श्री मैत्रेयनाथ" माने जाते है । श्री मैत्रेयनाथ योगाचारशास्त्र, महायान सूत्रालंकार, मध्यान्त विभंग शास्त्र आदि ग्रंथो की रचना की थी । जिसमें योगाचार मत का युक्तियों द्वारा प्रस्थापन किया था । उनके शिष्य श्री असंगने अभिधर्म समुच्चय, तत्त्व विनिश्चय - उत्तर तंत्र और संधिनिर्वचन सूत्रो के उपर टीका, योगाचारभूमिशास्त्र, महायान संपरिग्रह आदि ग्रंथो की रचना की थी । - श्री वसुबंधु पहले वैभाषिक मत के अनुयायी थे, बाद में श्री असंग के अनुरोध से योगाचार मत के समर्थक बने थे और " विज्ञप्तिमात्रता सिद्धि" नाम का विज्ञानवाद को मान्य ग्रंथ रचा था । श्री वसुबंधु के शिष्य श्री स्थिरमतिने (१) त्रिंशिकाभाष्य, (२) मध्यान्त विभंगसूत्रभाष्य टीका, (३) अभिधर्मकोशभाष्यवृत्ति, (४) सूत्रालंकारवृत्तिभाष्य, (५) मूलमाध्यात्मिक कारिकावृत्ति: इन ग्रंथो की रचना की थी । श्री वसुबंधु के शिष्य श्री दिङनागने न्यायगर्भित ग्रंथो की रचना की है । उनके प्रसिद्ध ग्रंथ (१) प्रमाण समुच्चय, (२) प्रमाणसमुच्चयवृत्ति, (३) न्यायप्रवेश, (४) हेतुचक्र समर्थन, (५) न्यायद्वार ( न्यायमुख), (६) आलंबन परीक्षा और उसकी वृत्ति, (७) त्रिकालपरीक्षा, (८) अष्टसहस्त्रिकापिंड । Jain Education International (१) ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय के त्रिविध भेद, (२) प्रत्यक्ष और अनुमान में अन्य सभी प्रमाणो का अन्तर्भाव और (३) तीन अवयव (प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण) का स्वीकार और दो अवयव ( उपनय - निगमन) का निषेध, ये तीन विशेषताओं को दिङनागने अपने ग्रंथ में पुरस्कृत की हैं । श्री दिङ्नाग के शिष्य श्री शंकरस्वामीने हेतुविद्यान्यायशास्त्र तथा न्यायप्रवेशतर्कशास्त्र, ये दो ग्रंथो की रचना की है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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