SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका के स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान संभव नहीं हैं । प्रत्यक्ष होते ही ( सामने आते ही) पदार्थों का नील, पीत आदि चित्र चित्त के पट के उपर खींचकर आता हैं । जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंब को देखकर बिंब की सत्ता का हम अनुमान करते है, उस प्रकार से चित्तरूप पट के उस प्रतिबिंबों से हमको प्रतीति होती है कि, बाह्य अर्थ की भी सत्ता अवश्य है । इसलिए बाह्यार्थ की सत्ता भी अनुमान पर अवलंबित 1 ४२ योगाचार विज्ञानवादी है । उनके मतानुसार बाह्यार्थ की सत्ता ही नहीं है । उनकी दृष्टि में बाह्य भौतिक जगत नितान्त मिथ्या है । चित्त ही एकमेव सत्ता है । जिसके विविध प्रकार के आभास को हम जगत के रूप से पहचानते हैं । चित्त को विज्ञान कहा जाता हैं । माध्यमिक शून्यवादी हैं । उसके मतानुसार जैसे बाह्यार्थ असत् है, वैसे चित्त - विज्ञान भी असत् है । चित्त की सत्ता भी स्वतंत्र नहीं है । उनकी दृष्टि में शून्य ही परमार्थ है । जगत की सत्ता व्यावहारिक है । शून्य की सत्ता पारमार्थिक हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि, बौद्धदर्शन में हीनयान और महायान ऐसे दो संप्रदाय भी प्रसिद्ध है । पूर्वोक्त चारो संप्रदायो वैभाषिक का संबंध हीनयान से है और अंतिम तीन संप्रदायो का संबंध महायान से है । चारो संप्रदायो की मोक्ष विषयक मान्यता पहले बताई ही हैं । तदुपरांत, चारो संप्रदाय संस्कृत और असंस्कृत धर्म मानते है । उसका विस्तृत वर्णन और उसकी अन्य मान्यताओं का निरूपण प्रस्तुत ग्रंथ में बौद्धदर्शन निरुपणोत्तर विशेषार्थ में किया गया है । बौद्धदर्शन में प्रमाण : बौद्धदर्शन में प्रमाण का सामान्य लक्षण बताते हुए बताया है कि..." अविसंवादी ज्ञान प्रमाण (54) कहा जाता है।" जो ज्ञान अर्थ का प्रापक होता हैं, वही ज्ञान अविसंवादी कहा जाता हैं । जो ज्ञान अर्थ का प्रापक न हो, वह ज्ञान अविसंवादी नहीं होता हैं। बौद्धदर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण हैं । क्योंकि प्रमाण के विषय ऐसे पदार्थ भी प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रकार के हैं । निर्विकल्प और भ्रान्ति रहित ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है । ( सपक्षसत्त्व, पक्षधर्मत्व और विपक्षासत्त्व : ये) तीन रूपवाले लिंग से लिंगी (साध्य) का ज्ञान हो, उसे अनुमान कहा जाता हैं । ( 55 ) प्रत्यक्ष के चार प्रकार है, (१) इन्द्रिय प्रत्यक्ष, (२) मानस प्रत्यक्ष, (३) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष, (४) योगि प्रत्यक्ष । चारों का स्वरूप प्रस्तुत ग्रंथ में श्लो १० की टीका में विस्तार से दीया गया हैं । बौद्ध मतानुसार पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व, ऐसे तीन स्वरूपवाला हेतु होता है । तीन स्वरूपवाले हेतु भी अनुपलब्धि, स्वभाव और कार्य ऐसे तीन प्रकार है । उसका वर्णन श्लो. ११ की टीका में किया गया हैं । बौद्धदर्शन के ग्रंथ और ग्रंथकार : T श्री गौतमबुद्ध का उपदेश मागधी भाषा में था । वे मौखिक ही था । श्री आनंद नाम के पट्टशिष्य के सहयोग से "सुत्तपिटक" ग्रंथ की रचना हुई । उसमें श्री बुद्ध के उपदेशो का संकलन है । श्री उपालि के सहयोग से "विनयपिटक” 54. अविसंवादकं ज्ञानं प्रमाणम् । (षड् समु श्लो-८ टीका) प्रमाणमविसंवादिज्ञानम् (प्र.वा. १/३) । 55 षड् समु. श्लो १० । प्रत्यक्षं - कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुतम् ।। (प्र. समु. १ / ३) तत्र प्रत्यक्षं कल्पनाऽपोढमभ्रान्तम् ( न्याय बि. १ / ४ ) तत्र स्वार्थ त्रिरुपाल्लिङ्गाद् यदनुमेये ज्ञानं तदनुमानम् । ( न्या. बि. २-३) । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy