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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १,
व्यापारवाला हो और जो कार्य की ओर असाधारण कारण हो, उसको करण कहा जाता हैं। प्रमा अर्थात् यथार्थज्ञान । यथार्थज्ञान स्मृति और अनुभव ऐसे दो प्रकार का हैं । परन्तु कुछ लोग प्रत्यक्षादि प्रमाणो से उत्पन्न होनेवाला जो अनुभवरूप ज्ञान हैं, उसको ही "प्रमा" कहते हैं। स्मृति साक्षात् प्रत्याक्षादि प्रमाणो से उत्पन्न नहीं होती हैं, परन्तु प्रत्यक्षादि अनुभव से संस्कार उत्पन्न होते हैं और संस्कार से स्मृति उत्पन्न होती हैं। संस्कारो में प्रामाण्य न होने से स्मृति को भी प्रमाण (कुछ लोग) मानते नहीं हैं। इसलिए इस मत में स्मृति को छोडकर केवल अनुभवात्मक प्रमा का "अनधिगताबाधितविषयज्ञानत्वं प्रमात्वं" "यह लक्षण किया गया हैं । उसमें "प्रमात्वम्" लक्ष्यवाचक पद हैं और " अनधिगताबाधितविषयज्ञानत्वं" लक्षणवाचक पद हैं। जो विषय को पहले जाना नहीं हैं और जो विषय अन्य प्रमाणो से बाधित न हो, उस विषय के ज्ञान को प्रमा कहा जाता हैं । स्मृति का विषय (जिसका स्मरण होता हैं, वह पदार्थ) पहले ज्ञान होता हैं। क्योंकि अनुभव के बिना स्मरण नहीं हो सकता। इसलिए लक्षण में “अनधिगत” पद लिखने से स्मृति के विषय की व्यावृत्ति हो जाती हैं। उसी तरह से " शुक्तौ इदं रजतम् " शुक्ति में रजत का ज्ञान होता हैं । इस ज्ञान का विषय रजत हैं। परन्तु उसका प्रमाण द्वारा बाध होता होने से "शुक्ति" में होनेवाला रजत का ज्ञान "प्रमा" नहीं हैं। ऐसे बाधित विषय को छोड देने के लिए लक्षण में विषय को 'अबाधित' विशेषण लगाया हैं। इसलिए पूर्वोक्त लक्षण स्मृति में बनता न होने से केवल अनुभवात्मक प्रमा का निर्दोष लक्षण हैं।
परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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जिस स्मृति का विषय यथार्थ होता हैं, अर्थात् उत्तरज्ञान से बाधित नहीं होता हैं, ऐसी स्मृति को भी कुछ लोग प्रमाण मानते हैं । इसलिए " अबाधितविषयज्ञानत्वं प्रमात्वम् " ऐसा दूसरा स्मृतिसाधारण लक्षण किया हैं ।
प्रमाण का सामान्य लक्षण बताकर अब प्रमाण के प्रकार और उसके विशेष लक्षण बताते हुए वेदांतपरिभाषा में कहा हैं कि,
“तानि च प्रमाणानि षट् प्रत्यक्षानुमानोपमानागमार्थापत्यनुपलब्धिभेदात्"
वे प्रमाण छ: हैं : (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) उपमान, (४) शब्द, (५) अर्थापत्ति और (६) अनुपलब्धिा प्रत्यक्षप्रमाण :- तत्र प्रत्यक्षप्रमायाः करणं प्रत्यक्षप्रमाणम् । प्रत्यक्ष प्रमा चात्र चैतन्यमेव 'यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म' (बृ. ३-४ -१) इति श्रुतेः ॥ (वेदांत परिभाषा)
प्रत्यक्षप्रमा के करण को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जाता हैं । वेदांत सिद्धांत में प्रत्यक्ष प्रमा चैतन्य ही हैं। क्योंकि, “यत्साक्षादपरोक्षाद् ब्रह्म" यह श्रुति हैं ।
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कहने का आशय यह हैं कि, घट के साथ चक्षुसंयोग होने के बाद "यह अमुक वस्तु" ऐसे प्रकार का जो प्रमात्मक ज्ञाना होता हैं, उसको प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जाता हैं। (यह बात प्रत्येक इन्द्रिय द्वारा होते प्रत्यक्ष के बारे में जानना ।) यह प्रत्यक्ष दो प्रकार का हैं। (७८) सविकल्पक और निर्विकल्पक । "सविकल्पकं वैशिष्ट्यावगाहिज्ञानम्।" जो प्रत्यक्ष में विशेषण अथवा नाम, रुप, जाति आदि का भी बोध होता हैं, उसको सविकल्पक कहा जाता हैं । जैसे कि, चक्षुरिन्द्रिय से घटत्वावच्छिन्न घट का बोध होता हैं। "निर्विकल्पकं तु संसर्गानवगाहिज्ञानम्" निर्विकल्पक ज्ञान में केवल वस्तुमात्र का बोध होता हैं। उसके नाम, जाति आदि का बोध नहीं होता हैं। अर्थात्
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( ७८ ) तच्च प्रत्यक्षं द्विविधम् । । सविकल्पक-निर्विकल्पकभेदात् । तत्र सविकल्पकं वैशिष्ट्यावगाहिज्ञानं । यथा घटमहं जानामीत्यादि ज्ञानम् । निर्विकल्पकं तु संसर्गानवगाहिज्ञानम् । यथा सोऽयं देवदत्तः, तत्त्वमसीत्यादि-वाक्यजन्यज्ञानम् ।
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