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________________ ३६० षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन हैं और यह अन्न का विकार होने से (७६)"अन्नमय कोश" कहा जाता हैं। पिता ने और माता ने खाये हुए अन्न का विकार वीर्य तथा रुधिर (स्त्रीरज) बनता हैं और उसमें से ही यह स्थूल शरीर जन्म लेता हैं। बाद में वह अन्न द्वारा ही बढता हैं, परन्तु उसको यदि अन्न न मिले तो नष्ट होता हैं। इसलिए ही वह अन्न का विकार होने से "अन्नमय" कहा जाता हैं और जैसे तलवार को म्यान ढकती हैं, वैसे आत्मा को वह ढक देती हैं, इसलिए "कोश" कहा जाता हैं। इस स्थूल शरीर में रहकर आत्मा शब्द आदि बाहर के स्थूल विषयो को भुगतता हैं इसलिए ही स्थूल भोग भुगतने का वह स्थान हैं। और यह जीव (आत्मा) देह, इन्द्रियाँ और मन के लाये हुए शब्दादि को भुगतता हैं, इसलिए ही उसको "भोक्ता" कहा जाता हैं ।९७७) वेदांतपरिभाषा के विषय-परिच्छेद में भी "तत्र सर्गाद्यकाल परमेश्वर :...... करिष्यामीति सङ्कल्पयति" इन पदो के द्वारा पूर्वोक्त प्रकार से ही जगत की उत्पत्ति का क्रम बताया गया हैं। वेदांतसार ग्रंथ के द्वितीय "अध्यारोप" अधिकार में भी पूर्वोक्त सभी बातो को विस्तार से बताई हैं। यह समग्रसृष्टि प्रक्रिया मिथ्याज्ञान में से होती हैं। वह मिथ्याज्ञान अध्यारोप से = वस्तु के उपर अवस्तु का आरोप करने से होता हैं । वस्तु के उपर अवस्तु का आरोप दूर हो, मिथ्याज्ञान नष्ट हो और वस्तु यथार्थ स्वरुप में दिखे, उसको "अपवाद" कहा जाता हैं। ____अपवाद हो तब सर्जन के उल्टे क्रम से विसर्जन होने लगता हैं। पहले चार प्रकार के शरीर, भोजन, पेय ब्रह्मांड अपने कारण स्थूलभूतो में मिल जाते हैं। शब्दादि विषय सहित स्थूलभूत और सूक्ष्मशरीर उसके कारण सूक्ष्मभूतो में मिल जाता हैं । सूक्ष्मभूत अपने कारण अज्ञान और अज्ञानोपहित चैतन्य में और अज्ञान से उपहित चैतन्य ईश्वर आदि अपने आधार रुप शुद्ध चैतन्य में विलय पाता हैं। इस प्रकार विसर्जन के बाद केवल शुद्ध चैतन्य ही अनुभव में आता हैं। • प्रमाणविचार :- "न हि लक्षणप्रमाणाभ्यां विना वस्तुसिद्धिः" -लक्षण और प्रमाण के बिना किसी भी वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती हैं। ऐसा न्याय हैं। इसलिए अब वस्तुसिद्धि के साधनरुप प्रमाण का निरुपण करेंगे । प्रमाण का सामान्य लक्षण उसके विशेषलक्षण को अविनाभावी होता हैं। इसलिए प्रमाण के भेदरुप प्रत्यक्षादि प्रमाणों का स्वरुप बताने से पहले प्रमाण का सामान्य लक्षण बताते हुए वेदांत परिभाषा में कहा हैं कि - "तत्र प्रमाकरणं प्रमाणम्।तत्र स्मृतिव्यावृत्तं प्रमात्वं अनधिगताबाधितविषयज्ञानत्वम् ।स्मृतिसाधारणं त्वबाधितविषयज्ञानत्वम् ।" ब्रह्म, ब्रह्मज्ञान और उसमें प्रमाण, वहाँ प्रमा का जो करण हैं वह प्रमाण कहा जाता हैं। अर्थात् यथार्थ ज्ञान (प्रमा) के करण को प्रमाण कहा जाता हैं । यह प्रमाण का सामान्य लक्षण हैं। "व्यापारवत् असाधारणं कारणं करणम्।" (७६ ) व्यष्टिरेषास्य विश्वस्य भवति स्थूलविग्रहः । उच्यतेऽन्नविकारित्वात्कोशोऽन्नमय इत्ययम् ॥४४३॥ (७७) देहोऽयं पितृभुक्तान्नविकाराच्छुक्रशोणितात् । जातः प्रवर्धतेऽन्नेन तदभावे विनश्यति ॥४४४॥ तस्मादन्नविकारित्वेनायमन्नमयो मतः । आच्छादकत्वादेतस्याप्यसे: कोशवदात्मनः ॥४४५॥ आत्मनः स्थूलभोगानामेतदायतनं विदुः। शब्दादिविषयान्भुंक्ते स्थूलान्स्थूलात्मनि स्थितः॥४४६।। बहिरात्मा ततः स्थूल भोगायतनमुच्यते। इन्द्रियैरुपनीतानां शब्दादीनामयं स्वयम्। देहेन्द्रियमनोयुक्तो भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥४४७|| Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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