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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ३५९ वायु १/२ पृथिवी+१/८ जल+१/८ तैजस+१/८ आकाश+१/८ वायु आकाश १/२ पृथिवी+१/८ जल१/८ तैजस+१/८ वायु+१/८ आकाश इस तरह से प्रत्येक भूत में पांचो के पांच भूतो के अंश होने पर भी जिसका अंश ज्यादा होता हैं, उसके नाम के उपर से उस स्थूल भूत का नाम दिया गया हैं। (सर्व वेदांत-सिद्धांत सार-संग्रह में प्रत्येक भूतो के गुण, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियो का कार्य जिस प्रकार बताया हैं, वह अब देखेंगे।) __ वैसे ही, इस पंचीकरण के अनुसार ही प्रत्येक भूतो में गुण उत्पन्न हुए हैं। आकाश में एक शब्द गुण हैं। वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण हैं। तेज में शब्द, स्पर्श और रुप तीन गुण हैं। जल में शब्द, स्पर्श, रुप और रस ये चार गुण हैं । पृथ्वी में शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गंध-ये पांच गुण हैं। श्रोत्रेन्द्रिय आकाश का अंश हैं इसलिए उसके गुण शब्द को ग्रहण करती हैं। स्पर्शेन्द्रिय वायु का अंश हैं इसलिए उसके गुण स्पर्श को ग्रहण करती हैं। चक्षुरिन्द्रिय तेज का अंश हैं इसलिए उसके गुण रुप को ग्रहण करती हैं, रसनेन्द्रिय जल का अंश हैं इसलिए उसके गुण रस को ग्रहण करती हैं। और घ्राणेन्द्रिय पृथ्वी का अंश है इसलिए उसके गुण गंध को ग्रहण करती हैं। उसी प्रकार वाणी आकाश का अंश होने से शब्द के उच्चाररुप क्रिया करती हैं। दोनों पैर वायु के अंश होने से आवागमन की क्रिया करते हैं। दोनो हाथ तेज के अंश होने से अग्नि इत्यादि की पूजा में तत्पर बनते हैं। और गुह्यइन्द्रिय जल का अंश होने से वीर्य और मूत्र को बाहर निकालती हैं और गुदा पृथ्वी का अंश होने से कठिन मल को बाहर निकालती हैं। प्रस्तुत बात का उपसंहार करते हुए बताते हैं कि पंचीकृतेभ्यः खादिभ्यो भूतेभ्यस्त्वीक्षयेशितुः । समुत्पन्नमिदं स्थूलं ब्रह्मांडं सचराचरम् ॥४३१॥ ईश्वर के देखने से (मैं सृष्टि रचु ऐसे विचार से) आकाशादि (सूक्ष्म) भूत, (उत्पन्न होकर पूर्वोक्त प्रकार से अन्योन्य के साथ मिलकर) पंचीकृत बने हैं, उनमें से स्थावर-जंगम सहित यह स्थूल ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ हैं। विशेष में, यह (७५)विश्व में जरायुज, अंडज, स्वेदज और उद्भिज्ज- इस प्रकार चार प्रकार के प्राणी हैं। वे अपने अपने कर्मो के अनुसार पैदा हो रहे हैं। उसमें जो जरायु से पैदा होते हैं, वह मनुष्य इत्यादि "जरायुज" हैं। जो अण्डे में से जन्म लेते हैं वे पक्षी इत्यादि "अण्डज" हैं। जो पसीने मै से जन्म लेते हैं, वे , इत्यादि "स्वेदज" हैं। और जो जमीन को फोडकर जन्म लेते हैं, वे वृक्ष इत्यादि "उद्भिज्ज" हैं। भूतो में से उत्पन्न हए ये चारो प्रकार के स्थल शरीर सामान्य रुप से एक ही हैं। इस प्रकार एकत्व के ज्ञान का विषय होने से "समष्टि" कहा जाता हैं । यह समष्टि शरीररुप उपाधिवाला चैतन्य फलयुक्त हैं । उसको वेदज्ञ लोग "वैश्वानर" और "विराट" कहते हैं । समग्र प्राणीयों में "आत्मा" पन का वह अभिमान करता हैं, इसलिए "वैश्वानर" कहा जाता हैं। और वह स्वयं ही विविध स्वरुप में विराजमान हैं, इसलिए "विराट" कहा जाता हैं। पूर्वोक्त चारों प्रकार के प्राणी तत् तत् भिन्न जाति रुप से अनेक हैं, इस तरह से अनेक प्रकार के ज्ञान का विषय होने से (पहले की तरह) प्रत्येक की अपेक्षा से "व्यष्टि" कहा जाता हैं। यह "व्यष्टि" शरीररुप उपाधिवाला और केवल (चैतन्य के) आभासवाला जो चैतन्य हैं, वह उस व्यष्टि शरीर के साथ तद्प बन गया हैं और उसको ही वेदज्ञ "विश्व" कहते हैं । इस स्थूल देह में वह विश्वात्मा अपना होने का अभिमान करके रहा हैं, इसलिए ही "विश्व" ऐसे सार्थक नामवाला हैं । स्थूल शरीर यही इस विश्वात्मा की व्यष्टि (७५) यह वर्णन सर्व-वेदांत सिद्धान्त सार-संग्रह में श्लोक ३३४ से ४४२ में हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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