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________________ ३५८ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन रुप में होता हैं। वह "व्यष्टि" लिंगशरीररुप उपाधिवाला और चैतन्य के आभास से युक्त चैतन्य को विद्वान "तेजस" कहते हैं। वह तेजोमय अंतःकरण रुप उपाधि से युक्त हैं, इसलिए ही "तेजस" कहते हैं। यह तैजस का शरीर स्थूल शरीर से अत्यंत सूक्ष्म होता हैं, उसके उस शरीर को ही "व्यष्टि" सूक्ष्म शरीर माना हैं। और तैजस, जाग्रत अवस्था के संस्कारमय होता हैं। इसलिए ही उसका यह शरीर कहा जाता हैं। उपरांत, यह तैजस स्वप्न में जाग्रत अवस्था की वासनाओं ने कल्पित किये हुए सूक्ष्म पदार्थो रुप विषयो को (अंतःकरण)की सूक्ष्मवृत्तियों के द्वारा भुगतता हैं। (उपर बताये अनुसार) समष्टि तथा व्यष्टि लिंग शरीर समान ही हैं, इसलिए पहले की तरह उनका अभेद ही समजना। क्योंकि, जिसकी जाति एक ही हो उसमें भेद कहाँ से होगा? वैसे ही वह समष्टि तथा व्यष्टि लिंगशरीररुप दोनों उपाधि एक ही हैं। इसलिए उन दोनों के अभिमानी सूत्रात्मा तथा तैजस को भी पूर्व की (पहले की) तरह एक ही माने हैं। 1 स्थूल प्रपंच- पंचीकरण ७४) और स्थूलभूत :- पहले सूक्ष्मप्रपंच का प्रकार देखा । अब आकाशादि सूक्ष्मभूत परस्पर (मिलकर) पंचीभूत स्थूलभूत बनते हैं, उसका क्रम बताया जाता हैं । वेदांत में स्थूल जगत की उत्पत्ति के (घटनाक्रम में) "पंचीकरण की प्रक्रिया" बताई हैं, वह इस अनुसार हैं - आकाश इत्यादि प्रत्येक भूत के समान दो दो भाग करना उसके बाद उनके अर्धभाग को छोडकर दूसरे अर्धभाग के चार-चार भाग करना । उस चार-चार भाग में से एक-एक भाग को अपने अपने अर्धभाग से अतिरिक्त प्रथम अलग रखे हुए एक-एक अर्धभाग में क्रमशः जमा करे । इस तरह करने से आकाशादि पांचो भूतो के वे पांचपांच भाग बनते हैं, और अपने अपने आधे भाग से अतिरिक्त दूसरे (चार भूतो के) चार भाग अपने को जो मिले होते हैं, उनके साथ जुडकर क्रमशः वे आकाशादि भूत स्थूलत्व को प्राप्त करते हैं । इसका नाम "पंचीकरण" कहा जाता हैं। यह पंचीकरण अप्रामाणिक हैं, ऐसा न कहे, क्योंकि, त्रिवृत्करणकी प्रसिद्ध श्रुति इस पंचीकरण को ही बताती हैं। वह स्थूल विषयो का अनुभव करता हैं, इसलिए उसको "जागृत" भी कहते हैं। वैश्वानर और विश्व बुद्धि, मन, चित्त और अहंकार द्वारा स्थूल विषयो का अनुभव करते हैं। यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, सूक्ष्मभूत स्थूलभूत बनता हैं, तब ही वह इन्द्रियगम्य बनता हैं । सूक्ष्मभूत को स्थूलभूत बनने के लिए भूतो का "पंचीकरण" आवश्यक हैं। इस प्रकार पंचीकरण स्थूलभूत की मूल आवश्यकता हैं। पहले बताये अनुसार एक स्थूलभूत अकेला नहीं रहता हैं। प्रत्येक भूत में दूसरे चार भूतो के अंशो का मिश्रण होता हैं। प्रत्येक पंचीकृत स्थूलभूत में दूसरे भूतो का मिश्रण पहले बताया हैं, वह नीचे के कोष्टक के उपर से स्पष्ट होगा। पृथ्वी १/२ जल+१/८ आकाश+ १/८ वायु+१/८ तैजस+१/८ पृथिवी जल १/२ पृथिवी+१/८ आकाश+१/८ वायु+१/८ तैजस+१/८ जल तेजस् १/२ पृथिवी+१/८ जल+१/८ आकाश+१/८ वायु+ १/८ तैजस् (७४)खादीनां भूतमेकैकं सममेव द्विधा द्विधा। विभज्य भागं तत्राद्यं त्यक्त्वा भागं द्वितीयकम्॥३९८।। चतुर्धा सुविभज्याथ तमेकैकं विनिक्षिपेत् । चतुर्णां प्रथमे भागे क्रमेण स्वार्धमंतरा ॥३९९॥ ततो व्योमादिभूतानां भागाः पंच भवन्ति ते । स्वस्वार्धभागेनान्येभ्यः प्राप्त भागचतुष्टयम् ॥४००॥ संयोज्य स्थूलतां यान्ति व्योमादीनि यथाक्रमम् । अमुष्य पंचीकरणस्याप्रामाण्यं न शक्यताम् ॥४०१।। उपलक्षणमस्यापि तत्रिवृत्करणश्रुतिः । (सर्ववेदांत सिद्धांत-सार संग्रह) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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