________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
३५७
अंशो से क्रियास्वरुप प्राण इत्यादि (वायु) उत्पन्न हुए हैं। ये पांचो (शरीर के) अंदर के (६९)वायु हैं। (शरीर में) पूर्व की ओर जाता हैं वह प्राण हैं । दक्षिण की ओर जाता हैं वह अपान हैं। चारो ओर जाता हैं, वह व्यान हैं। ऊंचे जाता हैं, वह उदान हैं और खाये हुए अन्न के रस इत्यादि को एकसमान करनेवाला हैं, वह समानवायु हैं। ___ ये प्राणादि वायुओमें तथा कर्मेन्द्रियोमें ज्यादा प्रमाणमें ज्यादातर क्रिया ही दिखाई देती हैं ; विद्वानो ने उनकी उत्पत्ति रजोगुण के अंशो से स्वीकार की हैं । (७०)महर्षि कहते हैं कि, "क्रिया शक्ति रजोगुणी होती हैं, तमोगुण की शक्ति जडरुप होती है और सत्त्वगुण की शक्ति प्रकाशरुप होती हैं।"
• (७९ प्राणमय कोश :- (पहले बताये हुए) वे प्राण इत्यादि पांच, पांचो कर्मेन्द्रियो के साथ मिलकर प्राणमय कोश बनता हैं । वह स्थूल हैं, जिसके योग से प्राणी चेष्टा करते हैं। वाणी इत्यादि से और शरीर से जो जो पुण्य या पापकर्म किये जाते हैं, उसमें "प्राणमय कोश" कर्ता हैं, जैसे वायु द्वारा हिलाया गया वृक्ष अनेक ओर (चारो ओर) हिलता हैं परन्तु वह वायु यदि स्थिर होता हैं तो वृक्ष भी स्थिर ही होता हैं, वैसे प्राण और कर्मेन्द्रियाँ प्रेरणा करे तब ही शरीर शास्त्रकथित या अकथित अनेक प्रकार की क्रियाओ में प्रवृत्ति करता हैं।
• (७२)समष्टिलिंग शरीर-हिरण्यगर्भ-सूत्रात्मा-प्राण :- विज्ञानमय, मनोमय और प्राणमय : ये तीनों कोश मिलकर सूक्ष्म शरीर बनता है, वह अतिसूक्ष्मरुप में रहे हुए आत्मा को बतानेवाला होने से "लिंग" शरीर भी कहा जाता हैं। और स्थूल शरीर से सूक्ष्म माना जाता हैं। जैसे सर्व वृक्षो का समुदाय सामान्य रुप से "वन" कहा जाता है, वैसे सर्व लिंगशरीरो का समुदाय सामान्य रुप से एक ही ज्ञान का विषय होने से "समष्टि लिंग शरीर" कहा जाता हैं । वह समष्टि लिंग शरीररुप उपाधियुक्त जो चैतन्य है, उसको सफल कहा जाता हैं। और उसको ही पण्डित "हिरण्य गर्भ, सूत्रात्मा तथा प्राण" कहते हैं। प्रकाशमय बुद्धि के मध्य भाग में हिरण्य (सुवर्ण) की तरह वह प्रकाशित है, इसलिए उसको "हिरण्यगर्भ" कहते हैं। वैसे ही, मणि की पंक्ति में (सूत्र) धागे की तरह समस्त लिंगशरीरो में व्याप करके वह रहा हुआ हैं, इसलिए उसको सूत्रात्मा कहते हैं और सर्व को जीवन देता हैं, इसलिए वह "प्राण" कहा जाता हैं।
• (७३)व्यष्टि लिंग शरीर और तैजस :- भिन्न-भिन्न अनेक ज्ञान का विषय होने से वही लिंग शरीर "व्यष्टि"
(६९) समस्तेभ्यो रजोंशेभ्यो व्योमादीनां क्रियात्मकाः । प्राणादयः समुत्पन्ना: पंचाप्यांतरवायवः ॥३७६।। प्राणः प्राग्गमनेन स्यादपानोऽवाग्गमनेन च । व्यानस्तु विष्वग्गमनादुत्क्रान्त्योदान इष्यते॥३७७।। अशितान्नरसादीनां समीकरणधर्मतः । समान इत्यभिप्रेतो वायुर्यस्तेषु पंचमः ॥३७८।। क्रियैव दिश्यते प्रायः प्राणकर्मेन्द्रियेष्वलम्। ततस्तेषां रजोंशेभ्यो जनिरंगीकृता बुधैः ॥३७९।। (७०) राजसां तु क्रियाशक्तिं तमः शक्तिं जडात्मिकाम् । प्रकाशरुपिणीं सत्त्वशक्तिं प्राहुर्महर्षयः ।।३८०॥(७१) एते प्राणादयः पंच पंचकर्मेन्द्रियैः सह। भवेत्प्राणमयः कोशः स्थूलो येनैव चेष्टते ॥३८१॥ यद्यन्निष्पाद्यते कर्म पुण्यं वा पापमेव वा । वागादिभिश्च वपुषा तत्प्राणमयकर्तृकम् ॥३८२॥ वायुनोच्चालितो वृक्षो नानारुपेण चेष्टते। तस्मिन्विनिश्चले सोऽपि निश्चलः स्याद्यथा तथा ॥३८३।। प्राणकर्मेन्द्रियैर्देहः प्रेर्यमाण: प्रवर्तते । नानाक्रियासु सर्वत्र विहिताविहितादिषु ॥३८४।। (७२) कोशत्रयं मिलित्वैतद्वपुः स्यात्सूक्ष्ममात्मनः । अतिसूक्ष्मतया लीनस्यात्मनो गमकत्वतः ॥३८५।। लिंगमित्युच्यते स्थूलापेक्षया सूक्ष्ममिष्यते । सर्वं लिंगवपुर्जातमेकधीविषयत्वतः ।।३८६।। समष्टिः स्यात्तरुगणः सामान्येन वनं यथा। एतत्समष्ट्युपहितं चैतन्यं सफलं जगुः ॥३८७।। हिरण्यगर्भः सूत्रात्मा प्राण इत्यपि पण्डिताः। हिरण्यमये बुद्धिगर्भे प्रचकास्ति हिरण्यवत् ॥३८८॥ हिरण्यगर्भ इत्यस्य व्यपदेशस्ततो मतः । समस्तलिंगदेहेषु सूत्रवन्मणिपंक्तिषु । व्याप्य स्थितत्वात्सूत्रात्मा प्राणनात्प्राण उच्यते॥३८९।। (७३) नैकधीविषयत्वेन लिंगंव्यष्टिर्भवत्यथ। यदेतद्व्यष्ट्युपहितं चिदाभाससमन्वितम् ॥३९०॥ चैतन्यं तैजस इति निगदन्ति मनीषिणः। तेजोमयान्तःकरणोपाधित्वेनैष तैजसः ॥३९॥ स्थूलात्सूक्ष्मतया व्यष्टिरस्य सूक्ष्मवपुमतम् । अस्य जागरसंस्कारमयत्वाद्वपुरुच्यते ॥३९२।। स्वप्ने जागरकालीनवासनापरिकल्पितान् । तैजसो विषयान् क्ते सूक्ष्मार्थान्सूक्ष्मवृत्तिभिः ॥३९३।। समष्टेरपि च व्यष्टेः सामान्येनैव पूर्ववत् । अभेद एव ज्ञातव्यो जात्यैकत्वे कुतो भिदा ॥३९४|| द्वयोरुपाध्योरेकत्वे तयोरप्यभिमानिनोः सूत्रात्मनस्तैजसस्याप्यभेदः पूर्ववन्मतः॥३९५।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org