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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
(चैतन्य के प्रतिबिंबवाला) यही (विज्ञानमय कोश) जीवत्व के अभिमान वाला पुरुष तमाम देह-इन्द्रियाँ इत्यादि के उपर और गृहादि के उपर "मैं और मेरा" ऐसा हमेशां अभिमान करता हैं। और वही कर्ता, भोक्ता, सुखी और दुःखी होता हैं। अपनी वासना से प्रेरित होकर वही नित्य, अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के कर्म करता हैं और उससे उत्पन्न हुए दोनों प्रकार के फलरुप सुख-दुःख को इस लोक में और परलोक में भुगतता हैं। यह जीव अनेकबार हजारो योनियो में बारबार जन्म लेता हैं, मरता हैं और संसारचक्र में भ्रमण करता हैं। ___ . (६६)मनोमय कोशः- मन, ज्ञानेन्दियों के साथ मिलकर "मनोमय कोश" बनता हैं। उसमें मन की मुख्यता दिखती हैं इसलिए वह मनोमय हैं। चिंता, खेद, हर्ष इत्यादि और इच्छा- कामना इत्यादि इस मनोमय की वृत्तिाँ हैं । इस मन के द्वारा विचार करता हैं अथवा संकल्प-विकल्प करता हैं और बाद में बाहर (उसका) फल चाहता हैं। यह मन ही यत्न करता हैं कर्म करता हैं और उसके फल भुगतता हैं, इसलिए सर्व का कारण वही हैं । मन ही जीव को अंदर और बाहर ले जाता हैं और मन के द्वारा ही सर्व पदार्थो को वह जानता हैं। उपरांत इस मन से जीव सुनता हैं, सूंघता हैं, देखता हैं, बोलता हैं, छूता हैं, खाता हैं और सब करता हैं। मन के कारण ही मनुष्यों को बंधन
और मोक्ष होता हैं। वैसे ही मन से ही अर्थ और अनर्थ प्राप्त होता हैं। शुद्ध मन से विवेक होने से मोक्ष होता हैं और मलिन मन से अविवेक होने से बंधन होता हैं। ___ यह मन(६सत्त्वगुण से रहित होकर केवल रजोगुण और तमोगुण से युक्त बनता हैं, तब मलिन और अशुद्ध होकर केवल अज्ञान से पैदा हुआ ही बन जाता हैं। उपरांत, तमोगुण के दोष से युक्त होने के कारण जडता, मोह, आलस्य और प्रमाद से तिरस्कार पाकर 'सत्' वस्तु को (मन) जानता नहीं हैं और पदार्थो का वास्तविक तत्त्व प्राप्त होने पर भी समजता नहीं हैं। इसी तरह से मन यदि केवल रजोगुण के दोषो से युक्त होता हैं, तो (सन्मार्ग से) विरुद्ध
और आडे-टेढे खिंच जानेवाले विक्षेपक गुण कामादि इत्यादि से पराभव पाकर मन जीव को व्यथा देता हैं- परेशान करता हैं। उस समय वह मनरुपी दिया सूक्ष्म पदार्थो का ज्ञान करानेवाला हैं, फिर भी अतिशय घूमने लगता हैं तथा जैसे प्रबल वायु से दिया हीलने लगता हैं और उसकी महिमा नष्ट हो जाती हैं, वैसे किसी प्रकार से मन की महिमा नाश हो जाती हैं। ___ इसलिए ही मुमुक्षु को संसाररुप बंधन से छूट जाने के लिए मन को रजोगुण, तमोगुण और उन दोनों के कार्यो से सदैव अलग करके संभाल के शुद्ध सत्त्वगुणमय चित्त के उपर ही प्रीतियुक्त करना चाहिए।
• पाँच कर्मेन्द्रियाँ और उसकी उत्पत्ति :- पाँच भूतो के ही रजोगुण के अंशो से क्रमशः वाणी, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ (गृह्येन्द्रिय): ये पाँच (६८)कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। आकाश इत्यादि भूतो के समस्त रजोगुण के
(६६) मनो मनोमयः कोशो भवेज्ज्ञानेन्द्रियैः सह । प्राचुर्यं मनसो यत्र दृश्यतेऽसौ मनोमयः ॥३५५॥ चिंताविषादहर्षाद्या: कामाद्या अस्य वृत्तयः । मनुते मनसैवैष फलं कामयते बहिः । यतते कुरुते भुंक्ते तन्मनः सर्वकारणम् ।।३५६।। मनो यमुष्य प्रणवस्य हेतुरंतर्बहिश्चार्थमनेन वेत्ति । शृणोति जिघ्रत्यमुनैव चेक्षते वक्ति स्पृशत्यत्ति करोति सर्वम् ॥३५७|| बंधश्च मोक्षो मनसैव पुंसामर्थोऽप्यनर्थोऽप्यमुनैव सिध्यति । शुद्धेन मोक्षो मलिनेन बंधो विवेकतोऽथाऽप्यविवेकतोऽन्यः ।।३५८।।
(६७) रजस्तमोभ्यां मलिनं त्वशुद्धमज्ञानजं सत्त्वगुणेन रिक्तम् । मनस्तमोदोषसमन्वितत्वाज्जडत्वमोहालसताप्रमादैः । तिरस्कृतं सन्न तु वेति वास्तवं पदार्थतत्त्वं ह्युपलभ्यमानम्॥३५९॥ रजोदोषैर्युक्तं यदि भवति विक्षेपकगुणैः प्रतीपैः कामाद्यैरनिशमभिभूतं व्यथयति। कथंचित्सूक्ष्मार्थावगतिमदपि भ्राम्यति भृशं मनोदीपो यद्वत्प्रबलमरुता ध्वस्तमहिमा ॥३६०॥ ततो मुमुक्षुर्भवबंधमुक्त्यै रजस्तमोभ्यां च तदीयकार्यैः। वियोज्य चित्तं परिशुद्धसत्त्वं प्रियं प्रयत्नेन सदैव कुर्यात्॥३६१॥ (सर्ववेदांत-सिद्धांत-सारसंग्रह)(६८) पंचानामेव भूतानां रजोंशेभ्योऽभवन्क्रमात् । वाकपाणिपादपायूपस्थानि कर्मेन्द्रियाण्यनु ॥३७५।।
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