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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
एक दूसरे के साथ नहीं मिले हुए- अपंचीकृत भूतों से सत्रह अंगोवाला लिंग शरीर उत्पन्न होता हैं । यह संसार का कारण हैं और भोग भुगतने का साधन हैं। (६३) सत्रह अंग इस अनुसार से हैं -
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श्रोत्र आदि पांच (ज्ञानेन्द्रिय), वाणी इत्यादि पांच (कर्मेन्द्रिय), प्राण आदि पांच वायु, बुद्धि और मन, (यह सत्रह का समुदाय) लिंगशरीर कहा जाता हैं।
श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, घ्राण : ये पांच अनुक्रम से आकाश इत्यादि भूतों के सात्त्विक अंशो मे से उत्पन्न और वह ज्ञानेन्द्रिय कहे जाते हैं। आकाश इत्यादि में रहे हुए पांच सात्त्विक अंश एकदूसरे के साथ जब मिलते हैं, तब उसमें से अंत:करण होता हैं। वह सर्व का कारण हैं।
(६४)जो अंशो में से अंत:करण हुआ हैं, वे अंश प्रकाशक हैं। इसलिए उनको सात्त्विक अंश कहते हैं। क्योंकि, सत्त्वगुण प्रकाशक और स्वच्छ हैं। वह अंत:करण भिन्न भिन्न वृत्तियों के कारण चार प्रकार का हैं। “मन, बुद्धि, अंहकार और चित्त" - इस नाम से वे कहा जाता हैं। (पहचाना जाता हैं।) संकल्प करता हैं, इसलिए वह "मन", पदार्थ का निश्चय करती हैं इसलिए वह "बुद्धि", अभिमान करता हैं, इसलिए वह "अहंकार" और पदार्थ का विचार करता हैं, इसलिए वह "चित्त" कहा जाता हैं। (पहले जो सत्रह के समुदायरूप) लिंगशरीर का लक्षण कहा हैं उसको समजने के लिए यहाँ मन और बुद्धि में अनुक्रम से चित्त का तथा अहंकार का अन्तर्भाव समजना । सोचना यह मन का धर्म हैं। उसी अनुसार से संकल्प-विकल्प करना यह भी मन का ही धर्म हैं । इसलिए चित्त का मन में ही अन्तर्भाव हो सकता हैं। बुद्धि का ही देह आदि के उपर दृढ अहंभाव दिखाई देता हैं, इसलिए बुद्धि में अहंकार का अन्तर्भाव करना यह योग्य ही हैं। इस कारण से ही बुद्धि कर्ता हैं, दूसरे (अन्य) करण हैं, ऐसा सिद्ध होता हैं । उपरांत ये दोनों ही आत्मा को मोह का कारण होकर संसार का कारण बनते हैं, ऐसा समजना ।
• विज्ञानमय कोश:- ( पहले बताई वह) बुद्धि ज्ञानेन्द्रियों के साथ मिलकर विज्ञानमय कोश बनता हैं । उसमें विज्ञान प्रचुर होने के कारण उसको विद्वान (६५) विज्ञानमय" कहते हैं और आत्मा को वह ढक देता हैं, इसलिए उसको "कोश" कहते हैं। यह विज्ञानमय कोश महान हैं, अहंकार की वृत्तिवाला हैं, कर्तारुप लक्षणवाला हैं और समस्त संसार का चालक हैं ।
(६३) श्रोत्रादिपंचकं चैव वागादीनां च पंचकम् । प्राणादिपंचकं बुद्धिमनसी लिंगमुचयते ॥ ३४० ॥ श्रोत्रत्वक्चक्षुजिह्वाघ्राणानि पंच जातानि । आकाशादीनां सत्त्वांशेभ्यो धींद्रियाण्यनुक्रमतः ||३४१|| आकाशादिगता: पंच सात्त्विकांशाः परस्परम् । मिलित्वैवान्तःकरणमभवत्सर्वकारणम्॥३४२॥ (६४) प्रकाशकत्वादेतेषां सात्त्विकांशत्वमिष्यते । प्रकाशकत्वं सत्त्वस्य स्वच्छत्वेन यतस्ततः ॥३४३॥ तदंतःकरणं वृत्तिभेदेन स्याच्चतुर्विधम् । मनो बुद्धिरहंकारचित्तं चेति तदुच्यते ॥ ३४४ || संकल्पान्मन इत्याहुर्बुद्धिरर्थस्य निश्चयात् । अभिमानादहंकारश्चित्तमर्थस्य चिंतनात् ॥ ३४५॥ मनस्यपि च बुद्धौ च चित्ताहंकारयोः क्रमात् । अंतर्भावोऽत्र बोद्धव्यो लिंगलक्षणसिद्धये ॥३४६॥ चितनं च मनोधर्मः संकल्पादिर्यथा तथा । अंतर्भावो मनस्येव सम्यक्चित्तस्य सिध्यति ॥३४७॥ देहादावहमित्येव भावो दृढतरो धियः । दृश्यतेऽहंकृतेस्तस्मादंतर्भावोऽत्र युज्यते ॥ ३४८ ॥ तस्मादेव तु बुद्धेः कर्तृत्वं तदितरस्य करणत्वम् । सिध्यत्यात्मन उभयाद्विद्यात्संसारकारणं मोहात् ॥ ३४९|| (६५) विज्ञानमयकोशः स्याद्बुद्धिर्ज्ञानेन्द्रियैः सह । विज्ञानप्रचुरत्वेनाप्याच्छादकतयात्मनः ॥३५०॥ विज्ञानमयकोशोऽयमिति विद्वद्भिरुच्यते । अयं महानहंकारवृत्तिमान्कर्तृलक्षणः । सर्वसंसारनिर्वोढा विज्ञानमयशब्दभाक् ॥३५१॥ अहं ममेत्येव सदाभिमानं देहेन्द्रियादौ कुरुते गृहादौ । जीवाभिमानः पुरुषोऽयमेव कर्ता च भोक्ता च सुखी च दुःखी ॥३५२॥ स्ववासनाप्रेरित एव नित्यं करोति कर्मोभयलक्षणं च । भुंक्ते तदुत्पन्नफलं विशिष्टं सुखं व दुःखं च परत्र चात्र ॥ ३५३ ॥ नानायोनिसहस्रेषु जायमानो मुहुर्मुहुः । म्रियमाणो भ्रमत्येष जीव: संसारमंडले ॥३५४॥ (सर्ववेदांत-सिद्धांत - सार संग्रह )
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