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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
कुछ हैं ही नहीं। शुद्ध-ब्रह्म यदि अविद्या का आश्रय हैं, तो शुद्धत्वापत्ति होगी। क्योंकि शुक्लतन्तु से ही शुक्ल पट बनता है। इस प्रकार अविद्या में शुद्धत्वापत्ति होगी ।अत एव अविद्या का आश्रय, ब्रह्म नहीं, जीव हैं ।(६०)
सृष्टिप्रक्रिया :- श्रीशंकराचार्य के अद्वैतवाद में ईश्वर ही सृष्टि का कारण हैं। सृष्टि का निमित्त और उपादान कारण ईश्वर ही हैं, ऐसा प्रतिपादन करते हुए सर्ववेदांत सिद्धांत सारसंग्रह में बताया हैं कि
अनंतशक्तिसंपन्नो मायोपाधिक ईश्वरः । ईक्षामात्रेण सृजति विश्वमेतच्चराचरम् ॥३३०॥
मायारुप उपाधिवाले ईश्वर अनंतशक्ति से संपन्न हैं। वह केवल देखने मात्र में (देखते-देखते में) ही इस स्थावरजंगम जगत को उत्पन्न करते हैं।
शंका :- ईश्वर तो केवल अद्वितीय आत्मस्वरुप ही हैं। उनका कोई उपादान कारण नहीं हैं या जगत रचना में (सृष्टिसर्जन में) उनके पास कोई उपादान कारण नहीं हैं, तो फिर वे स्वयं ही सर्वजगत को किस तरह से उत्पन्न करते हैं ? समाधान :- इस शंका का समाधान देते हुए (६१)सर्ववेदांत सिद्धांत सारसंग्रह में बताया हैं कि
आप ऐसी शंका न करे, क्योंकि ईश्वर स्वयं ही निमित्तकारण और उपादानकारण होकर स्थावर-जंगम जगत का सर्जन करते हैं, रक्षण करते हैं, और संहार करते हैं। अपनी मुख्यता से ईश्वर जगत का निमित्तकारण हैं और उपाधि की मुख्यता से उपादान कारण भी हैं। जैसे मकड़ी अपनी मुख्यता से जाले का निमित्तकारण हैं और अपने शरीर की मुख्यता से उपादान कारण भी हैं, वैसे ईश्वर सृष्टि का निमित्त और उपादान कारण हैं ।
• ईश्वरकी सृष्टि-सूक्ष्मप्रपंच(६२) :- तमोगुण की मुख्यतावाली प्रकृति से विशिष्ट (युक्त) हुए परमात्मा से (ईश्वर से) आकाश उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी, इस क्रमानुसार (भूतो की) उत्पत्ति हुई हैं। इसका कारण (ईश्वर की) शक्ति (प्रकृति) तमोगुण की मुख्यतावाली हैं। क्योंकि उनके कार्य में जडता दिखाई देती हैं । (ऐसा न्याय हैं कि) जो कार्य के गुण उत्पन्न होते हैं, वह कारण के ही गुण होते हैं। (उपर बताये अनुसार) ये भूत अनुक्रम से सूक्ष्मभूत या भूतो की तन्मात्रायें भी कही जाती हैं। ये सूक्ष्मभूतो से सूक्ष्मदेह उत्पन्न होते हैं। वैसे ही ये सूक्ष्मभूतो के ही अंश एक दूसरे के साथ मिल जाने से स्थूलभूत (और स्थूल शरीर) भी उत्पन्न होते हैं।
• लिंग शरीर :अपंचीकृतभूतेभ्यो जातं सप्तदशांगकम् । संसारकारणं लिंगमात्मनो भोगसाधनम् ॥३३९॥
(६०) जीवाश्रयाविद्याविषयस्य ब्रह्मणो जगभ्रमाधिष्ठानत्वात् न प्रयोजनापेक्षेत्यर्थः-शुक्लेभ्यस्तन्तुभ्यः शुक्लपटप्रसवदर्शनात् अशुद्धं जगद्विशुद्धात् ब्रह्मणो भवितुं नार्हति ।-ब्रह्मसिद्धिः-पृ.६० (६१)अद्वितीयस्वमात्रोऽसौ निरुपादान ईश्वर : । स्वयमेव कथं सर्व सृजतीति न शक्यताम्॥३३१॥ निमित्तमप्युपादानं स्वयमेव भवन्प्रभुः । चराचरात्मकं विश्वं सृजत्यवति लुंपति॥३३२।। स्वप्राधान्येन जगतो निमित्तमपि कारणम् । उपादानं तथोपाधिप्राधान्येन भवत्ययम् ॥३३३॥ यथा लुता निमित्तं च स्वप्रधानतया भवेत् । स्वशरीरप्रधानत्वेनोपादानं तथेश्वरः ॥३३४॥ (६२) तमःप्रधानप्रकृतिविशिष्टात्परमात्मनः । अभूत्सकाशादाकाशमाकाशाद्वायुरुच्यते ॥३३५।। वायोरग्निस्तथैवाग्नेरापोऽद्भ्यः पृथिवी क्रमात् । शक्तेस्तमःप्रधानत्वं तत्कार्ये जाड्यदर्शनात् ॥३३६।। आरंभन्ते कार्यगुणान्ये कारणगुणा हि ते। एतानि सूक्ष्मभूतानि भूतमात्रा अपि क्रमात्॥३३७॥ एतेभ्यः सूक्ष्मभूतेभ्यः सूक्ष्मदेहा भवन्त्यपि। स्थूलान्यपि च भूतानि चान्योन्यांशविमेलनात्॥३३८।। (सर्ववेदांत-सिद्धांत-सारसंग्रह)
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