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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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इसका उत्तर विवरण सम्प्रदाय में इस प्रकार दिया गया है कि शुक्ति के ज्ञान से, रजत रुप अध्यास का अपने कारण में प्रविलय मात्र हो जाता हैं, जैसे मुसलप्रहार से, घट का मृत्तिका में विलय हो जाता हैं। अत एव शुक्ति के ज्ञान से मूलाविद्या का, आत्यन्तिक समुच्छेद नहीं होता, अतः शुक्तिज्ञान से मुक्ति का प्रसंग उपस्थित नहीं हो सकता(५१)। मौलिकज्ञान में जो भेद दृष्टिगत होता है वह अज्ञान के अवस्थाभेद के कारण हैं । जिसके कारण वह अनिर्वचनीय रजत आदि का उपादान हैं और शुक्तिज्ञान से अध्यास की निवृत्ति हो जाती हैं(५२)। तत्त्वदीपनकार ने "माया तु प्रकृति विद्यात्" इत्यादि श्वेताश्वरोपनिषद् के वाक्यों में एक वचन की कल्पना से अविद्यैकत्व की कल्पना की है और व्यावहारिक भेद का कारण अवस्था भेद माना हैं।
अविद्या का आश्रय एवं विषयः- अविद्या के आश्रय तथा विषय के सम्बन्ध में परवर्ती वेदान्त में, बहुत मतभेद हैं। भामती प्रस्थान में अविद्या का आश्रय जीव को माना गया हैं और विवरणप्रस्थान में अविद्या का आश्रय ब्रह्म हैं। श्री वाचस्पति मिश्रने अध्यासभाष्य में जीव को कार्य और कारण रुप में अविद्याद्वय का आधार माना हैं । (५३)समन्वाधिकरण में उन्होंने जीव को अविद्या का आश्रय मानते हुए लिखा है कि, ब्रह्म नित्य शुद्ध हैं, अतः यह अविद्या का आश्रय नहीं हो सकता, अविद्या का आश्रय तो जीव में ही सम्भव हो सकता हैं । (५४)प्रसिद्धाधिकरण में भी श्रीवाचस्पति मिश्र ने अविद्या का आश्रयत्व, जीव में स्वीकार किया हैं और ब्रह्म के आश्रयत्व का खण्डन किया हैं ।५५)यद्यपि अविद्या का आश्रय जीव हैं तथापि निमित्तरुप अथवा विषयरुप के माध्यम से ईश्वर का आश्रय लेती हैं. अत एव वह ईश्वराश्रया कहलाती हैं. इसीलिए नहीं कि ईश्वर अविद्या का आधार हैं(५६) विद्यास्वभाव ब्रह्म, अविद्या का आधार नहीं हो सकता, इसी प्रकार श्रीवाचस्पति मिश्र ने वाक्यान्वयाधिकरण में कहा है कि विद्यास्वभाव परमात्मा हैं, अविद्या साक्षात्रुप में नहीं रहती, तथापि परमात्मा के प्रतिबिम्बकल्प-जीव के द्वारा वह परमात्माश्रित कहलाती हैं । (५७) __ आचार्य श्रीवाचस्पति मिश्र को अविद्या का आश्रयत्व विषयक मत, आचार्य श्रीमण्डन से मिलता हैं । आचार्य श्री मण्डन मिश्र ने ब्रह्मसिद्ध में स्पष्ट शब्दों में अविद्या का आश्रय, जीव को माना हैं। जिस प्रकार आकाश ही, घटादि रुप उपाधियों से उपहित होकर घटाकाश हो जाता हैं और वह घटाकाश ही रजो धूमादियों को, आश्रय देता हैं, महाकाश को नहीं। उसी प्रकार जीव ही अविद्या को आश्रय देता हैं, न कि ब्रह्म,(५८) क्योंकि शुद्ध बुद्ध-स्वभाव तथा सूर्यसदृश, भासमान ब्रह्म में अविद्या का आश्रयत्व होना असम्भव हैं। (५९)आचार्य श्रीमण्डन मिश्र ने आगे इस विषय पर चर्चा इस प्रकार की हैं कि, ब्रह्म मायिक जगत् का अधिष्ठान हैं, अतः उसमें अविद्या के आश्रयत्व का कोइ प्रयोजन ही नहीं हैं । इसलिए जीवाश्रया अविद्या हैं, वही उत्तमकल्प हैं, क्योंकि जीव तो, अविद्या के अतिरिक्त
(५१) अस्मिन् पक्षे शुक्तिकादिज्ञानेन रजताद्यध्यासानां स्वकारणे प्रविलयमात्रं क्रियते मुसलप्रहारेणैव घटस्य । पं.पा.वि.पृ.९८.(५२) अथवा मूलाज्ञानस्यैवावस्थाभेदाः रजताद्युपादानानि शुक्तिकादिज्ञानैः सहाध्यासेन निवर्तन्ते इति कथ्यताम्पं.पा.वि.प्र.९९ (५३) कार्यकारणाविद्याद्वयाधारः अहंकारस्पदं संसारी सर्वानर्थसंभारभाजनं जीवात्मा। भामती १.१.१ (५४) नाविद्या ब्रह्माश्रया किन्तु जीवे, सा त्वनिर्वचनीयेत्युक्तम् । तेन नित्यशुद्धमेव ब्रह्म। भामती- १.१.४ (५५) अनाद्यविद्यावच्छेदलब्धजीवभावः पर एवात्मा स्वतो भेदेनाभासते तादृशानां च जीवानामविद्या, न तु निरुपाधिनो ब्रह्मणः । जीवात्मविभगो तदाश्रयाऽविद्येत्यन्योन्याश्रयत्वमिति । भामती- १.२.६ (५६) जीवाधिकरणाप्यविद्यानिमित्ततया विषयतया वा ईश्वरमा श्रयत इति ईश्वराश्रयेतेत्युच्यते न त्वाधारतया। विद्यास्वभावे ब्रह्मणि तदनुपपत्तेः । भामती १.४.३(५७) अविद्योपादानं च यद्यपि विद्यास्वभावे परमात्मनि न साक्षादस्ति। भागती- १.४.३ (५८) यथाऽऽकाशमेव घटाद्युपहितं धूमतुषाराद्याश्रयाः नाऽऽकाशमात्रम् तद्वत् जीवानामविद्याश्रयत्वमित्यर्थः । ब.सि.ब.का. पृ-५८ । (५९) शुद्धबोधस्वभावस्य भानुवत्तमोऽविकरणत्वाधिरोधादित्यर्थः। - ब्रह्मसिद्धि-ब्रह्मकाण्ड, पृ.५८।
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