SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५२ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन अनेकत्व के विषय में, मतविभिन्नता उपलब्ध होती हैं । भामतीकार श्रीवाचस्पतिमिश्र के मत में, प्रतिजीव में रहनेवाली अविद्या, अनेक हैं, किन्तु विवरण सम्प्रदाय के श्रीप्रकाशात्मा के अनुसार मूलाविद्या एक हैं । श्रीवाचस्पति मिश्र के मत में जैसे एक ही बिम्ब दर्पण, सर, नदी, मणि, कृपाण इत्यादि भिन्न भिन्न स्थाने पर प्रतिबिम्बित होता रहता हैं, वैसे ही ब्रह्म की भी प्रतिजीव में रहने वाली, भिन्न भिन्न अविद्यारुप गुहाएँ हैं (४५)। भामतीभाष्य में ही अन्यत्र अविद्या के अनेकत्व का समर्थन करते हुए श्रीवाचस्पति मिश्र कहते हैं कि अविद्या के नानात्व के कारण ही जीवो की बन्ध-मोक्ष-व्यवस्था संगत हो सकती हैं(४६)। यदि सभी जीवों में रहने वाली अविद्या एक हैं, तब एक जीव के अविद्या के नाश होने पर समस्त जीवों की मुक्ति की आपत्ति उपस्थित हो जायेगी, अतः अनेक अविद्या मानना ही श्रेयस्कर हैं, क्योंकि अनेक जीववाद में जिस जीव को ज्ञान होगा, उसकी मुक्ति, शेष जीवो का बन्धन स्वीकार करना न्यायसंगत होगा। _ भामतीकार वस्तुतः इस विवाद को निबटाने के लिए अनादि बीजांकुरन्याय का प्रयोग करते हैं। उसके मत में अविद्या के एकत्व और अनेकत्व का विवाद इसी प्रकार का हैं, जिस प्रकार अंकुर और बीज का, क्योंकि अविद्या की उपाधि के भेद से जीवगत भेद मानना पडेगा और जीव-भेद के अधीन अविद्यागत भेद को स्वीकार करना पडेगा। इस प्रकार परस्पराश्रित जीव और अविद्या का भेद हैं, (४७)यह सिद्धान्त मानना पडेगा। परस्पराश्रित का यहाँ अभिप्राय, बीजांकुरवत् उभयसिद्ध हैं। अविद्या के एकत्व पक्ष में यह तर्क दिया जाता हैं कि श्रुति में अविद्या के एकत्व का ही प्रतिपादन हुआ है, क्योंकि श्रुतियों में अविद्या या अज्ञान के लिए "अव्यक्तम् तथा अव्याकृतम्' इत्यादि एकवचनपरक शब्दों का प्रयोग किया गया हैं। भामतीकार ने इसका उत्तर, इस प्रकार दिया है कि- अविद्या प्रतिजीव में रहने के कारण अनेक हैं, फिर भी श्रुति में अविद्यात्व इस सामान्यधर्म से एकवचन का प्रयोग हुआ है और यह प्रयोग मात्र औपचारिक हैं ।(४८) विवरणकार श्रीप्रकाशात्मा ने अविद्या के नानात्व का खण्डन किया है और एकत्व की स्थापना की हैं। उनके मत में ब्रह्म ही अपनी माया और अविद्या के बल पर विवर्त का रुप धारण करता हैं । अतः ब्रह्मसदृश अविद्या भी एक ही हैं ।(४९) वस्तुतः मूलाविद्या एक हैं, उसकी भिन्नता का कारण तो अवस्था हैं । जब जीव अविद्या का आश्रय लेता है, तो उसके शरीरावस्था के कारण उसमें नानात्व, दृष्टिगत होता हैं, वस्तुतः अविद्या, अपने मूलरुप में एक ही हैं। जीवावस्था गत-अविद्या का नाश, ज्ञान के उदय होने पर होता है। इसका प्रमाण श्रुतियों में भी मिलता है५०। इस प्रकार बन्धन-मोक्ष की व्यवस्था की भी संगति हो जाती हैं और ज्ञान एंव अज्ञान के एकत्व का मत भी स्थिर रहता है। यहाँ एक शंका की जाति हैं कि यदि अविद्या को एक माना जाय, तो शुक्ति ज्ञान से ही, अज्ञान की निवृत्ति हो जायेगी, फलतः शुक्ति के ज्ञान से मोक्षप्रसंग उपस्थित हो जायेगा। यदि विषयों के भेद से अज्ञान में भेद न माना जाय तो अज्ञान को अध्यास का उपादान नहीं माना जायेगा, या पुनःउपादान की निवृत्ति के बिना ही अध्यास की निवृत्ति माननी पडेगी। (४५) यथा हि बिम्बस्य मणिकृपाणादयो गुहाः, एवं ब्रह्मणोऽपि प्रतिजीवं भिन्ना अविद्या-गृहा-इति । भामती- १.४.२२ (४६) तेन यस्यैव जीवस्य विद्योत्पन्ना तस्यैवाविद्या अपनीयते न जीवान्तरस्य, भिन्नाधिकरणयोर्विद्याऽविद्ययोरविरोधात्। वही- १.४.३ (४७) अविद्योपाधिभेदाधीनो जीवभेदो जीवभेदाधीनश्चाविद्योपाधिभेद इति परस्पराश्रयादुभयसिद्धिरिति साम्प्रतं अनादि त्वाद्वीजाङ्करवदुभयसिद्धिः।- भामती. १.४.३(४८)अविद्यात्वमात्रेण च एकत्वोपचार: अव्यक्तमिति च अव्याकृतमिति च।-वही.(४९) तस्मात् ब्रह्मैव स्वमायया अविद्यया विवर्तते । पं.पा.वि.प.६९३ (५०) आजामेकां लोहितशुक्लकृष्णाम् जहात्येनम् । श्वेता. ३.४.५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy