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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन सविकल्पकज्ञान में विशेषणविशिष्टविशेष्य का बोध होता हैं और निर्विकल्पक ज्ञान में विशेषणविशिष्टविशेष्य का बोध नहीं होता हैं। जैसे कि, सविकल्पक ज्ञान में घटत्वावच्छिन्न घट का और निर्विकल्पक ज्ञान में केवल घटका बोध होता हैं। ३६२ नैयायिक इन्द्रियार्थसन्निकर्ष के छः प्रकार बताते हैं । (१) संयोग, (२) संयुक्तसमवाय, (३) संयुक्तसमवेतसमवाय, (४) समवाय, (५) समवेत - समवाय और (६) विशेष्य-विशेषणभाव । ये इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से क्रमशः घटादि द्रव्य, तद्गत रुप, रुप की जाति (रुपत्व), शब्द, शब्दत्व तथा अभाव और समवाय संबंध का ग्रहण होता हैं । वेदांत दर्शन समवाय को नहीं मानता हैं। उसके मत अनुसार वस्तु और तद्गत रुप के बीच तादात्म्य हैं। इसलिए उनके 'मतानुसार (७९ ) सन्निकर्ष पांच ही हैं। संयोग १, संयुक्त तादात्म्य २, संयुक्ताभिन्न तादात्म्य ३, तादात्म्य ४ तथा अभिन्न तादात्म्य ५ । (ये पांचो सन्निकर्षो की आवश्यकता आदि की चर्चा आगे देखेंगे ।) अभाव के ग्रहण के लिए एक भिन्न (अनुपलब्धि) प्रमाण मानते हैं और वेदांतीओ के मतानुसार समवाय कोई वस्तु ही नहीं हैं। इसलिए अभाव और समवाय को ग्रहण करने के लिए "विशेषण विशेष्यभाव" सन्निकर्ष मानने की आवश्यकता नहीं हैं। प्रत्यक्ष के दो भेद हैं। एक इन्द्रियों से जन्य और दूसरा इन्द्रियो से अजन्य । इन्द्रियाँ केवल घ्राणादि पांच हैं। वेदांत मन को इन्द्रिय मानते नहीं हैं। वेदांत परिभाषा के प्रत्यक्षपरिच्छेद में (८०) मन के इन्द्रियत्व का खंडन किया गया हैं। इसलिए सुख-दुःख आदि का प्रत्यक्ष "इन्द्रियाजन्य" हैं। पांचो इन्द्रियो में घ्राण, जिह्वा और त्वचा तो अपने-अपने स्थान उपर रहकर ही विषय का ज्ञान करती हैं ( अप्राप्यकारी) । श्रोत्र और चक्षु विषय के स्थान के उपर पहुँचकर उसके साथ संयोग करके विषय को ग्रहण कराती हैं ( प्राप्यकारी) । शब्दग्रहण में नैयायिक जो "वीचितरङ्गन्याय" की प्रक्रिया बताते हैं, वह वेदांतीओ को मान्य नहीं हैं। साक्षीचैतन्य की द्विविधता से (अर्थात् द्रष्टा और ज्ञाता की दृष्टि से) पूर्वोक्त प्रत्यक्ष के अन्य दो भेद बताते हुए वेदांत परिभाषा-प्रत्यक्ष परिच्छेद में बताया हैं कि, "तच्च प्रत्यक्षं पुनर्द्विविधं जीवसाक्षि ईश्वरसाक्षि चेति । तत्र जीवो नामान्तःकरणावच्छिन्नं चैतन्यम् । तत्साक्षि तु अन्तःकरणोपहितं चैतन्यम् । अन्तःकरणस्य विशेषणत्वोपाधित्वाभ्यामनयोर्भेदः। विशेषणं च कार्यान्वयि व्यावर्तकम् । उपाधिश्च कार्यानन्वयी व्यावर्तको वर्तमानश्च । रुपविशिष्टो घटोऽनित्य इत्यत्र रुपं विशेषणम् । कर्णशष्कुल्यवच्छिन्नं नभः श्रोत्रमित्यत्र कर्णशष्कुल्युपाधिः । अयमेवोपाधिर्नैयायिकैः परिचायक इत्युच्यते ॥" भावार्थ :- निर्विकल्पक और सविकल्परुप प्रत्यक्ष के पुनः दो प्रकार हैं। एक जीवसाक्षि प्रत्यक्ष और दूसरा ईश्वरसाक्षि- प्रत्यक्ष । उसमें अंत:करणावच्छिन्न चैतन्य " जीव" हैं । और अंतःकरणोपहित चैतन्य “जीवसाक्षि” हैं। (७९) पांच सन्निकर्षो का स्वरुप वेदांतपरिभाषा के विषयपरिच्छेद में दिया गया हैं। (८०) वेदांतपरिभाषा (चोखम्बा) पृ. ३१ से ३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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