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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ३४९ "अज्ञान का श्रुति, स्मृति तथा पुराणों में अविद्या, माया, प्रकृति, अग्रहण, अव्यक्त, तम, कारण, भय, शक्ति, महासुप्ति, निद्रा, क्षर तथा आकाश आदि नाम-रुपो से बहोत प्रकार से गान किया गया हैं। वे सभी ही (२४)अज्ञान के विभिन्न नाम हैं। उनका विचार (२५) श्रीशंकराचार्य को मिलता आता हैं। परन्तु श्रीप्रकाशात्मा ने पंचपादिका (२६ विवरण में माया और अविद्या में भेद बताया हैं । और वहाँ लिखा है कि, माया अपनी विक्षेपशक्ति की प्रधानता से दृश्यप्रपंच को उत्पन्न करती हैं और अविद्या अपनी आवरणशक्ति के कारण ब्रह्मतत्त्व के स्वरुप को आच्छादित कर देती हैं। पहले बताये अनुसार श्रीसदानंद ने भी (२७) वेदांतसार में माया और अविद्या दोनों में भेद तथा दोनो में आवरण और विक्षेपशक्ति की चर्चा की हैं। इस अनुसार से उत्तरवर्ती आचार्यो ने माया और अविद्या में भेद मानकर अद्वैतमत की व्यवस्था की हैं । (२८)श्रीसुरेश्वराचार्य ने भी माया और अविद्या में भेद नहीं किये हैं। उन्होंने दोनो को पर्याय मानकर माया और अविद्या के सहयोग से ब्रह्म, जगत् की (२९)सृष्टि करते हैं, ऐसा माना हैं। आचार्य श्रीमंडनमिश्र ने माया और अविद्या में अभेद संबंध प्रदर्शित किया हैं। उनके मत में अविद्या को ही माया अथवा मिथ्याप्रतीति कही गई हैं। क्योंकि, वह न तो माया का स्वभाव है और न तो उससे भिन्न है, सत् भी नही हैं और असत् भी नहीं हैं। आचार्य श्रीवाचस्पति मिश्र भी माया और अविद्या में भेद प्रदर्शित न करते हुए, अनुमानाधिकरण में उसका वर्णन करते हुए लिखते हैं कि, ब्रह्म की अविद्या या मायादि शब्दो से अभिहित शक्ति को तत्स्वरुप ब्रह्म से पृथक् ३०) निर्वचन नहीं किया जा सकता । उस स्थान पे अविद्या को ईश्वर के (३१) अधीन भी कही जाती हैं। ब्रह्म अविद्याशक्ति द्वारा सृष्टि की रचना करता हैं, परन्तु स्वयं सृष्टिरुप नहीं बन जाता हैं। इस तरह से श्रीवाचस्पति के मत में भी अविद्या और माया के बीच भेद नहीं हैं। श्रीशंकरोत्तर वेदांत में जीव और ईश्वर के भेद का प्रतिपादन करने के लिए माया और अविद्या में भी भेद करना उत्तरवर्ती आचार्यों को आवश्यक लगा, जिसके परिणामस्वरुप अविद्या जीवगत अज्ञान कहा गया और जागतिक अज्ञान के लिए माया शब्द का प्रयोग किया गया। श्रीविद्यारण्यस्वामी ने जीव और ईश्वर दोनो को विशुद्ध चैतन्य ब्रह्म का (३२)प्रतिबिंब स्वीकार किया हैं। परन्तु यहाँ जीव और ईश्वर में जो भेद हैं, उसका निराकरण हुआ नहीं हैं, फलतः उनको उपाधिभेद मानना पडा। क्योंकि, ईश्वर सर्वज्ञ हैं और जीव अल्पज्ञ हैं। इस भेद का निरुपण करने के लिए कालांतर में प्रतिबिंब वादियों ने बिंब को ईश्वर और प्रतिबिंब को जीव माना हैं, स्वयं श्रीविद्यारण्य ने माया में विशुद्ध सत्त्व की प्रधानता और अविद्या में रजस् और तमस् की प्रधानता मानी हैं। इस प्रकार जीव और ईश्वर की भेदविषयक व्याख्या ने माया और अविद्या में भेद उत्पन्न किया हैं। (२४) येयं श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणेषु नामरुपमव्याकृतमविद्यामायाप्रकृतिः अग्राहणमव्यक्तं तमःकरणं लयः शक्तिः महासुप्ति: निद्राक्षरमाकाश इति च तत्र तत्र बहुधा गीयते । (पं. पा. पृ-९८) (२५) अविद्यात्मिका हि बीजशक्तिरव्यक्तशब्दनिर्देश्या परमेश्वराश्रया मायामयी महासुप्ती यस्यां स्वरुपप्रतिबोधरहिताः शेरते संसारिणो जीवो (ब्र.सू. शां. भा. १.४.३)(२६) एकस्मिन्नपि वस्तुनि विक्षेपप्राधान्येन माया, आच्छादनप्राधान्येन अविद्या इति व्यवहारभेदः ॥ पं.पा. वि-९८ । (२७) अस्याः ज्ञानस्यावरणविक्षेपनामकमस्ति शक्तिद्वयम् ॥वेदांतसार-९।। (२८) स्वतस्त्वविद्याभेदोऽपि मनागपि न विद्यते । -बृ.३.भा.वा.४.३.१२४४ (२९) स्वात्माविद्या - बृ.३.भा.वा. ३.९.१६०, स्वात्मामाया, बृ.३.भा.वा. ४.३.९१९ (३०) ब्राह्मणस्त्वियमविद्याशक्तिमायादिशब्दवाच्या न शक्त्या तत्त्वेनान्यत्वेन वा निर्वक्तुम्॥ भामती- १.४.२(३१) अविद्याशक्तेश्चेश्वराधीनत्वम् तदाश्रयत्वात्।-भामति- १.४.२ यदि ब्रह्मणोऽविद्या शक्त्या संसारः प्रजायते । (३२) सत्त्वशुद्धविशुद्धाभावं मायाविद्ये च ते मते । मायाबिम्बं वशीकृत्य तां स्यात् सर्वज्ञ ईश्वरः । अविद्यावशगस्तदन्यस्तद्वैचित्र्यादनेकधा ।। पंचदशी-१-१६-१७।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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