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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
रजत अवभासित होता हैं, वैसे ब्रह्मरुप अधिष्ठान में जगत् भासित होता हैं। जैसे एक ही चन्द्र या सूर्य भिन्न-भिन्न नदी, तालाब आदि में उसके पानी के भेद से अनेक सूर्य तथा अनेक चन्द्र के प्रतिबिंब भासित होते रहते हैं। उसी प्रकार से यह नानात्मक जगत् एक ही ब्रह्म में नानात्मक रुप में अवभासित होता रहता हैं (वेदांतसार में भी "वस्तुन्यवस्त्वारोपः अध्यासः" इन शब्दो के द्वारा पूर्वोक्त स्वरुप को ही समर्थन दीया हैं।)
इस अध्यास को विद्वान (२० अविद्या भी कहते हैं। यही अविद्या विवेक का नाश करके ब्रह्मरुप वस्तु के स्वरुप में अज्ञानरुप विघ्न खडा कर देती हैं । यह अध्यास (२१)अनादि, अनंत, नैसर्गिक और मिथ्याप्रत्ययरुप हैं । इसी अध्यास के कारण अहंकार का जन्म होता हैं और जीव स्वयं अपने को कर्ता-भोक्ता समजने लगता हैं तथा समस्त जगत का प्रत्यक्षीकरण करता मर्त्य में (मृत्युलोक में) अनुरुक्त रहता हैं । अध्यास ही जगत के बाह्यधर्मो को आत्मा में अध्यस्त कर देता है, जिसके फल स्वरुप पुत्र-भार्यादि सुखी रहने से सुखी और दुःखी रहने से अपने को दुःखी के रुप में अनुभव करने लगता हैं । उसी तरह से देहधर्मो और इन्द्रियधर्मो को आत्मा में आरोपित कर देता हैं। वहाँ आगे बताया हैं कि, इस अध्यास जन्य अनर्थो से बचने के लिए अद्वैतबोध ही आवश्यक हैं और अद्वैतबोध ही उस अनर्थो से मुक्त करा सके, वैसा हैं।
माया और अविद्या :- माया और अविद्या एक ही है या भिन्न-भिन्न है, इस विषय में अलग-अलग मत प्रवर्तित हैं। श्री शंकराचार्य के भाष्यो में माया और अविद्या में कोइ भेद लक्षित नहीं होता हैं। परंतु उत्तरवर्ती वेदांतीयों ने माया को ब्रह्म की भावात्मिका शक्ति और अविद्या को अभावात्मिका शक्ति मानी हैं।
एक व्याख्या अनुसार माया, समस्त जागतिक प्रपंच, अज्ञान की विधायिका हैं और अविद्या जीवगत अज्ञान की संचालिका हैं। माया और अविद्या में दूसरा अंतर यह भी माना गया हैं कि, माया ईश्वर की (२२)उपाधि हैं और अविद्या जीव की उपाधि हैं । तीसरा फर्क यह हैं कि, माया में सत्त्वगुण की प्रधानता रहती हैं परंतु
अविद्या में तमोगुण प्रधान रहता हैं। श्री शंकराचार्यजी के मतानुसार माया और अविद्या दोनों को एक ही मानी हैं और उनकी "आवरण" और "विक्षेप" ऐसी दो शक्तिर्यां बताई हैं। आचार्य सदानंद ने अज्ञान के दो भेद माने हैं : एक समष्टिगत और दूसरा व्यष्टिगत । समष्टिगत अज्ञान में विशुद्ध सत्त्व की प्रधानता रहती हैं । व्यष्टि अज्ञान में मलिन सत्त्व की प्रधानता रहती हैं । ( २३ समष्टिगत अज्ञान को ईश्वर की उपाधि तथा माया कही गई हैं।
और व्यष्टि अज्ञान को जीव की उपाधि तथा अविद्या कही गई हैं। अज्ञान के भावरुप में सत्त्व, रजस् और तमस् तीनो गुणो को प्राप्त किया जा सकता हैं और वह अनिर्वचनीय हैं। अज्ञान में ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति दोनो प्राप्त कर सकते हैं। जब अज्ञान रजस् और तमस् से अप्रभावित रहता हैं, तब ज्ञानशक्ति को उत्पन्न करता हैं तथा सत्त्व से अप्रभावित असंस्पृष्ट रहता हैं, तब रजस् और तमस् गुणो के माध्यम से क्रियाशक्ति को उत्पन्न करता हैं। ज्ञानशक्ति ही अज्ञान की आवरणशक्ति कही जाती हैं और क्रियाशक्ति विक्षेपशक्ति कही जाती हैं। माया आवरणशक्ति प्रधान होती हैं और अविद्या विक्षेपशक्तिप्रधान होती हैं। एक ही अज्ञान, आवरणशक्ति की प्रधानता के कारण माया और विक्षेपशक्ति की प्रधानता के कारण अविद्या कही जाती हैं। __पंचपादिकाकार आचार्य श्रीपद्मपाद ने माया और अविद्या में भेद नहीं किया हैं । उनका मत है कि,
(२०) तमेतदेवं लक्षणमध्यासं पण्डिता अविद्येति मन्यते। (ब्र.सू . शां. भा) (२१) एवमयमनादिरनन्तो नैसर्गिकोऽध्यासो मिथ्याप्रत्ययरुपः कर्तृत्वभोक्तृत्वप्रवर्तकः सर्वलोकप्रत्यक्षः (ब्र. सू. शां. भा.) (२२) कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः नानादिक्षित.(भा.वेदान्त.सि.मु.पृ.४) (२३) इदमज्ञानं समष्टिव्यष्ट्यभिप्रायेणैकमनेकमिति च व्यवहियते (वेदान्तसार-६)
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