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________________ ३५० षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, श्रीशंकराचार्य ने स्पष्ट शब्दो में माया और अविद्या में भेद प्रदर्शित नहीं किया है, तो भी उनके भाष्यो में यह भेद दृष्टिगोचर होता हैं। श्रीशंकराचार्य ने अविद्या को नामरुप तथा माया के वश में बताया हैं। छान्दोग्योपनिषद् भाष्य में ईश्वर को (३३ विशुद्धोपाधि से संबद्ध माना हैं। इस प्रकार से आचार्य श्रीशंकर ने जहाँ थोडा भी संकेत दिया हैं, उस स्थान को लेकर परवर्ती आचार्यो ने माया और अविद्या में, जीव और ईश्वरगत भेदो को स्पष्टकरने के लिए अंतर बताया हैं। श्री वाचस्पति मिश्र ने अविद्या और माया के विषय में चर्चा करते हुए लिखा है कि- कारणभूत लयलक्षण से युक्त, अविद्या से पूर्व, सर्गोपचित तथा विक्षेपसंस्कार से, जो कुछ प्रत्युपस्थापित अनेक नामरुप हैं, वही माया हैं। माया के विषय में विशेष विश्लेषण करते हुए लिखते हैं कि, का उपादान और अधिष्ठान भूत ब्रह्म की माया के कारण, समस्त भ्रमात्मक जगत स्वतः चलता हैं। जैसे जल तन की सहायता के बिना बहा करता हैं।(३४) वैसे श्रीवाचस्पतिमिश्र भी यहा माया को जागतिक अज्ञान मानते हैं। अधिक स्पष्टता करते हुए कहा है कि, विक्षेपशक्ति अविद्या की मानी गई हैं, उसका भी निर्देश श्रीवाचस्पति ने स्पष्ट किया हैं । अर्थात् विक्षेपशक्ति के कारण नानात्मक प्रतीत होनेवाला जागतिक अज्ञान ही माया हैं। अविद्या की भावरुपता :- श्रीशंकराचार्य के परवर्ती आचार्यो ने अविद्या को भावरुप तथा अभावरुप दोनों मानी हैं। विवरणकार श्री प्रकाशात्मा का मत हैं कि, अविद्या भावरुप हैं, क्योंकि, "मैं अज्ञ हुँ" और "मैं अपने आपको तथा दूसरे को जानता नहीं हु" इस प्रकार से अभाव का (३५)प्रत्यक्षीकरण होता हैं। उपरोक्त ज्ञान में अज्ञान का अभावक ज्ञान नहीं हैं, क्योंकि, जिस प्रकार से "मैं सुखी हु" इस अनुभव में सुखत्व का प्रत्यक्ष ज्ञान हैं, उस प्रकार से "मैं अज्ञ हु" इस अनुभव में अज्ञान की (३६)भावरुपता चमकती हैं। इसलिए ही अभाव को प्रमाण माना गया हैं। यदि अभाव, भावरुप न हो तो उसमें प्रमाणत्व किस तरह से संभव होगा? ___ अज्ञान को भावरुप मानने से एक आपत्ति खडी होती है कि, "मैं अज्ञ हुँ" इस स्थान में अज्ञान के आश्रयत्व और विषयत्व का प्रत्यक्षज्ञान बाधित हो जाता हैं। क्योंकि आप अज्ञान को ज्ञान से निवर्त्य मानते ही हो । यदि ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति नहीं मानोंगे, तो मोक्षापत्ति होगी। मोक्ष में ज्ञान का कारणत्व आप को इष्ट हैं । इसलिए अज्ञान को प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध नहीं किया जा सकता। उसका समाधान इस प्रकार से है - ज्ञान का अज्ञान से विरोध तब होगा कि जब हम अज्ञान को ज्ञान का अभावक माने, परंतु हम ऐसा मानते नहीं हैं। जिस प्रकार से घटाभाव काल में और घटाभाव देश में एककालावच्छेदेन घट की स्थिति विरुद्ध हैं, उस प्रकार से ज्ञान का और ज्ञान के अभाव का एक साथ रहना, यह विरुद्ध है, विवरणकार के मत में अज्ञान भावरुप होने के कारण एक ही अधिकरण में तथा एक ही काल में ज्ञान-अज्ञान दोनों के होने में असंगति नहीं हैं। क्योंकि दोनों भावपदार्थ हैं और भिन्न हैं। जैसे घट और पट दोनों भावपदार्थ हैं और भिन्न है, इसलिए एककालावच्छेदेन उनकी स्थिति असंगत नहीं हैं, संगत ही हैं। उसी तरह से ज्ञान और अज्ञान भावात्मक और भिन्न होने के कारण एक (३ काल में रह सकते हैं। ___ (३८) श्री विद्यारण्यस्वामी का इस संबंध में कथन हैं कि, आश्रय, विषय और अज्ञान ये तीनो एक ही साक्षी में (३३) विशुद्धोपाधिसम्बन्धात् - छा.उ.शा.भा. ३-१४-२. (३४) ब्रह्मण एव मायावशेनोपादानत्वादधिष्ठानत्वाज्जगद्विभ्रमस्य यथा पयोऽम्बुनोश्चेतनानधिष्ठितयोः स्वत एव प्रवृत्तिः । भामती - २.२.३. (३५) प्रत्यक्षं तावत् अहमज्ञः ममान्यं च न जानामि इत्यपरोक्षावभासदर्शनात् (पं. पा. वि. पृ.७४) (३६) ननु ज्ञानाभावविषय अयमवभासः? न अपरोक्षावभासत्वात् अहं सुखी इतिवत् । अभावस्य च षष्ठप्रमाणगोचरत्वात् । (पं.पा.वि.पृ.७४)(३७) भावरुपाज्ञानप्रत्यक्षवादे तु सत्यपि आश्रयप्रतियोगीज्ञाने ज्ञानभावस्यैव भावान्तरस्यापि न अनुपपत्तिः नियन्तुं शक्यते - (पं.पा.वि.पृ.८१) (३८) आश्रयविषयज्ञानानि त्रीण्यपि एकेनैव साक्षिणावभासन्ते। तथा चाश्रयविषयो साधयन्नयं साक्षी तद्वदेवाज्ञानमपि साधयत्येव न तु निवर्तयति। तन्निवर्तकंत्वन्तःकरणवृत्तिज्ञानमेव। तच्चात्र नास्तीति कथं व्याहतिः।- वि.प्र.सं.पृ.५५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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