SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 459
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४६ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन पहले हमने देखा था कि अज्ञान (अविद्या) भावरुप हैं । यह भावरुप अज्ञान के साधक तीन साक्षिप्रत्यक्ष अद्वैतसिद्धि में दीये गये हैं। (१) "अहमज्ञः मैं अज्ञ हूँ", मामन्यं च न जानामि (मैं, मुज को या अन्य को जानता नहीं हूँ।) ऐसा सामान्यतः साक्षिप्रत्यक्ष । (२) त्वदुक्तमर्थं न जानामि (आपने कहे हुए अर्थ को मैं जानता नहीं हूँ।) ऐसा विशेषतः साक्षिप्रत्यक्ष । (३) “एतावन्तं कालं सुखमहमस्वाप्सम् न किञ्चिदवेदिषम् (उतने समय मैं चैन से सो रहा था, कुछ भी नहीं जानता था)" ऐसा सुप्तोत्थित पुरुष का स्मृतिसिद्ध सौषुप्त साक्षिप्रत्यक्ष। "मैं अज्ञ हूँ अर्थात् अज्ञानवान् हूँ अर्थात् अज्ञान का आश्रय हूँ" ऐसा साक्षिप्रत्यक्ष भावरुप अज्ञान का साधक हैं, ऐसा अद्वैतसिद्धिकार ने कहा हैं। ये तीनो साक्षिप्रत्यक्षो का विस्तृत विवेचन अद्वैतसिद्धि इत्यादि अद्वैतवेदांतमत के ग्रंथो में दिखाई देता हैं। विशेष जिज्ञासुओं को वहाँ से समज लेने का सुझाव हैं। __ अविद्या के दो प्रकार :- वेदांतीयों ने शुक्ति में रजत का भ्रमात्मक जो ज्ञान होता हैं, उसका प्रातिभासिक सत्ता के रुप में स्वीकार किया हैं। प्रातिभासित रजत की उत्पत्ति में कारण की विचारणा करने से कारण के रुप में अविद्या बताई गई हैं। वह अविद्या आकाशादि भूतों की उपादानभूत अविद्या से विलक्षण हैं । अर्थात् अविद्या के दो भेद बताये हैं। उसके शास्त्रीय नाम हैं - (१) तुलाविद्या और (२) मूलाविद्या । प्रातिभासिक रजत (शुक्ति में रजत का आभास होता हैं, वह रजत वास्तविक-पारमार्थिक नहीं हैं, परंतु प्रातिभासिक हैं .... हैं शुक्ति परंतु रजत का प्रतिभास होता हैं, वह प्रातिभासिक रजत) को उत्पन्न करनेवाली रजतसामग्री, लौकिक रजत की सामग्री से विलक्षण होती हैं और वह है अविद्या । परन्तु प्रातिभासिक रजत को उत्पन्न करनेवाली अविद्या आकाशादि की उपादानभूत अविद्या से विलक्षण हैं। __ आकाशादि की उपादानभूत अविद्या को मूलाविद्या कहा जाता हैं । जो केवल चिन्मात्र के (चैतन्यमात्र के) आश्रय में रहती हैं। चैतन्यमात्र ही उसका विषय रहता हैं और वह निर्विकल्पक ज्ञान से निवृत्त हो जाती हैं। प्रातिभासिक रजत को उत्पन्न करनेवाली (रजत सामग्री रुप) अविद्या को तुला अविद्या कहा जाता हैं। यह तुला अविद्या शुक्ति-अवच्छिन्न चैतन्य के आश्रय में रहती हैं । रजत से भिन्न जो शुक्ति, तन्निष्ठ जो शुक्तित्व, वही उसका विषय रहता हैं और यह तुला अविद्या सविकल्पक ज्ञान से निवृत्त होती हैं। ___ इस तरह से तुला अविद्या और मूला अविद्या में भेद हैं । प्रातिभासिक रजत की उत्पादिका तुला अविद्या की प्रक्रिया बताते हुए वेदांतपरिभाषा के प्रत्यक्षपरिच्छेद में परिणाम-विवर्त के लक्षण की चर्चा के समय कहा हैं कि - (एक नेत्र का रोग विशेष "काच" कि जिससे दृष्टि मंद होती है और पीलिया या उसके जैसे अन्य दोष के कारण नेत्र दूषित होता हैं।) मंददृष्टिवाला या दूषित नेत्रवाला व्यक्ति जब सामने शीप (शुक्ति) जैसी कोई चीज चमकती देखता हैं, तब उससे उस व्यक्ति के मन में 'यह' इस आकार की अंतःकरणवृत्ति पैदा होती हैं। सीप के चमकने के कारण, "यह" इस अंत:करण-वृत्ति में वह चमकना भी प्रतीत होता हैं । इस प्रकार से देखने वाले व्यक्ति की दोषयुक्त चक्षुरिन्द्रिय की सामने रहे हुए द्रव्य के साथ संयोग होकर "इदम्" विषय से अवच्छिन्न चैतन्य प्रतिबिंबित होता हैं। वह प्रतिबिंबित होने से वह वृत्ति बाहर नीकलती हैं, तब प्रमेयचैतन्य, प्रमाणचैतन्य, प्रमातृचैतन्य का अभेद हो जाता हैं। उसके बाद प्रमातृचैतन्याभिन्न जो विषय (प्रमेय) चैतन्य, तन्निष्ठ जो शुक्तित्वप्रकारक अविद्या, वह रजतरुप विषयाकार में और रजतज्ञानाकार में परिणत होती हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy