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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट -१, वेदांतदर्शन इत्यादि अन्तःकरणवृत्ति होने पर भी वह प्रमाकरण से जन्य अन्तःकरण वृत्ति नहीं हैं। प्रमाकरण से जन्य अन्तःकरणवृत्ति से अभिव्यक्त चैतन्य (ज्ञान) ही अविद्या का विरोधी हैं । ३४५ यद्यपि, ‘“सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" इस श्रुति अनुसार ब्रह्म चैतन्य ज्ञानवस्तु हैं । अर्थात् ब्रह्मचैतन्य को ज्ञान कहा गया है, तो भी प्रमाकरण से जन्य अन्तःकरणवृत्ति द्वारा अनभिव्यक्त ऐसा चैतन्य अविद्या का विरोधी नहीं हैं। प्रमाकरण से जन्य अन्तःकरणवृत्ति स्वयं ज्ञान नहीं हैं । परन्तु अभिव्यक्त चैतन्य की अभिव्यंजक होने से, प्रमाकरण से जन्य अन्त:करण वृत्ति को भी औपचारिक रुप से ज्ञान कहा जाता हैं। फिर भी मुख्यार्थ में वह ज्ञान नहीं हैं। मुख्यार्थ में तो प्रमाकरणजन्य अन्तःकरणवृत्ति द्वारा अभिव्यक्त चैतन्य ही ज्ञान हैं और अविद्या उससे दूर होती हैं । इसलिए अनादि, भावरुप और ज्ञाननिवर्त्य वस्तु ही अविद्या हैं । "अनादिभावरुपत्वे सति ज्ञाननिवर्त्यत्वम्” यह लक्षण न्यायामृत और अद्वैतसिद्धि में अविद्या के लक्षणरुप में दीया हैं । द्वितीय लक्षण : (१७) भ्रम का उपादानकारण जो है वह अविद्या हैं । यह अविद्या का दूसरा लक्षण हैं। भ्रम का उपादानत्व ही अविद्यात्व हैं। अविद्या ही भ्रम का उपादानत्व हो सकती हैं। यह विश्वभ्रम का उपादान माया या अविद्या है। ब्रह्म विश्वभ्रम का अधिष्ठान हैं, उपादान नहीं हैं। यदि ब्रह्म विश्वभ्रम का उपादान हो तो यह द्वितीय लक्षण ब्रह्म में अतिव्याप्त होने का दोष आता हैं। इसलिए जो लोग अविद्या का द्वितीय लक्षण स्वीकार करते हैं, उनके मतानुसार ब्रह्म विश्वभ्रम का अधिष्ठान ही हैं, उपादान नहीं हैं । जो लोग अविद्यासहित ब्रह्म को विश्वभ्रम का उपादान स्वीकार करते हैं, उनके मतानुसार यह लक्षण संगत नहीं होता हैं । क्योंकि उनके मतानुसार ब्रह्म और अविद्या दोनों में विश्वभ्रम का उपादानत्व होने से ब्रह्म अविद्यालक्षण की अतिव्याप्ति का दोष आता हैं। यदि सूक्ष्मदृष्टि से विचारणा करे तो मालूम होगा कि, जो ब्रह्म को भी भ्रम का उपादान स्वीकार करते हैं उनके मत में भी अविद्या के (माया के) उपादानत्व से ब्रह्म के उपादानत्व में वैलक्षण्य हैं। अविद्या परिणामी वस्तु हैं और ब्रह्म अपरिणामी वस्तु हैं। परिणामत्व रुप में उपादानत्व अविद्या में ही संभवित हैं, ब्रह्म में संभवित नहीं हैं । तदुपरांत, अविद्या अचेतन अर्थात् जड हैं । ब्रह्म अजड अर्थात् चेतन हैं । अचेतनत्व रुप में उपादानत्व अविद्या में ही संभवित हैं, ब्रह्म में संभवित नहीं हैं। इसलिए परिणामित्व रुप में या अचेतनत्व रुप में उपादानत्व अविद्यालक्षण हैं। ऐसा कहने से ब्रह्म में लक्षण की अतिव्याप्ति दोष नहीं आयेगा । भ्रम का परिणामत्व रुप में उपादानत्व या भ्रम का अचेतनत्व रुप में उपादानत्व ही अविद्यात्व हैं । जो उपादानता का अवच्छेदक धर्म परिणामित्व या अचेतनत्व हैं, वह उपादानता अविद्या का लक्षण हैं । तृतीय लक्षण :- ज्ञानत्वरूप में साक्षात् ज्ञाननिवर्त्यत्व ही अविद्या का (१८) तृतीय लक्षण हैं। अर्थात् ज्ञानत्वरूप में ज्ञान जिनका साक्षात् निवर्तक हैं वह अविद्या । यह लक्षण नव्य अद्वैत वेदान्तीयों को मान्य हैं । यह तृतीय लक्षण का विवरण प्रथम लक्षण के विवरण प्रसंग में ही पहले विशदरुप में किया गया हैं । ( १७ ) यद्वा भ्रमोपादानत्वमज्ञानलक्षणम् । इदं च लक्षणं विश्वभ्रमोपादानमायाधिष्ठानं ब्रह्मेति पक्षे, न तु ब्रह्ममात्रोपादानत्वपक्षे, ब्रह्मसहिताविद्योपादनत्वपक्षे वा । अतो ब्रह्मणि नातिव्याप्तिः, इतरत्र तु पक्षे परिणामित्वेनाचेतनत्वेन वा भ्रमोपादनं विशेषणीयमिति न दोषः । (अद्वैतसिद्धि, पृ-५४५) (१८) ज्ञानत्वेन रुपेण साक्षाज्ज्ञाननिवर्त्यत्वं वा तल्लक्षणमिति च प्रागुक्तमेव, तस्मान्नाविद्यालक्षणासम्भव इति सर्वमवदातम् । (अद्वैतसिद्धि पृ. ५४६) I For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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