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________________ ३४४ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन अद्वैतवेदान्ती अविद्या को अनादि वस्तु के रुप में स्वीकार करते हैं । अविद्या का कोई उपादान कारण नहीं हैं। समस्त कार्य का परिणामी उपादान कारण स्वयं अविद्या हैं । जो ब्रह्म को कार्यजगत का उपादान कारण मानते हैं, वे उसको परिणामी उपादान कारण मानते नहीं हैं । यद्यपि, ब्रह्म को जब उपादान कारण कहा जाता हैं, तब अधिष्ठानकारण के अर्थ में ही उपादानकारण कहा जाता हैं । ब्रह्म जगत का अधिष्ठान है। जगत का परिणामी उपादान कारण तो अविद्या हैं । समस्त कार्यजगत का जो उपादानकारण हो वह कभी सादि नहीं हो सकता । जो सृष्टि के आद्य कार्य का उपादान कारण हो वह सृष्टि के पहले भी अस्तित्व रखता होगा ही। इसलिए सृष्टि में उसकी उत्पत्ति नहीं हुई हैं। सृष्टि में जिस वस्तु की उत्पत्ति हुई न हो वह अनादि है। शशविषाण, वंध्यापुत्र इत्यादि अवस्तुयें हैं। इसलिए वे सृष्टि में उत्पन्न हुई न होने पर भी अनादि नहीं मानी जायेगी। वैशेषिक मत में परमाणु अनादि हैं। सांख्य मतानुसार प्रकृति अनादि हैं। उसी तरह से अद्वैतवेदान्त के मतानुसार जगत का मूल उपादान कारण अविद्या भी अनादि हैं। अविद्या जैसे अनादि वस्तु है, वैसे भाववस्तु भी है। जो अनादि हैं, भाववस्तु है और ज्ञाननिवर्त्य है वही अविद्या हैं । अर्थात् "अनादिभावरूपत्वे सति ज्ञाननिवर्त्यत्वम् अविद्यात्वम् ।" इस लक्षण में भावत्व विशेषण रखा न जाये तो भी चलेगा । जो लोग प्रागभाव स्वीकार करते है उनके मत में ज्ञानप्रागभाव और इच्छादिप्रागभाव में "ज्ञाननिवर्त्यत्व" धर्म रहता होने से उन प्रागभावो को भी अविद्या का लक्षण लागू पड जायेगा और अतिव्याप्ति का दोष आयेगा । इस दोष को टालने के लिए ही "भावत्व" विशेषण अविद्या के लक्षण में रखा गया हैं। परंतु जो लोग प्रागभाव का स्वीकार नहीं करते, उनके मतानुसार "भावत्व" विशेषण लक्षण में रखने की आवश्यकता नहीं हैं । इसलिए ही श्रीनृसिंहाश्रम उनके अद्वैतदीपिका ग्रंथ में अविद्या के लक्षण के रुप में "अनादित्वे सति ज्ञाननिवर्त्यत्वम्" इतना ही दिया हैं । उन्होंने अद्वैत दीपिका में और विवरण के उपर की भावप्रकाशिका में प्रागभाव का विस्तार से खंडन किया हैं। अद्वैतसिद्धिकार मधुसूदन सरस्वती ने अपनी कृति अद्वैतरत्नरक्षण में भी प्रागभाव का खंडन किया हैं। फिर भी अविद्या के लक्षण में "भावत्व" विशेषण रखा गया है, वह तो जो लोग प्रागभाव का स्वीकार करते हैं, उनको लक्ष में रखकर रखा गया है, ऐसा समजना चाहिए। वैशेषिक भाव और अभाव ऐसे दो प्रकार के पदार्थ मानते हैं। अद्वैतवादीयों के मतानुसार अविद्या अभाव वस्तु नहीं हैं । इसलिए उसको "भाव" कहा जाता हैं । वास्तव में तो वह भाववस्तु भी नहीं हैं, वह तो भाव और अभाव दोनों से विलक्षण हैं। भावरुप या अभावरुप से अविद्या का निरुपण करना संभव न होने से अविद्या भावरुप से या अभावरुप से अनिर्वाच्य हैं। अविद्या भाव भी नहीं हैं अभाव भी नहीं हैं। भावाभाव भी नहीं हैं । अविद्या यह तीनों कोटी से विलक्षण होने के कारण अनिर्वाच्य हैं । सारांश में, अविद्या को "भावरुप" बताने में अद्वैतवादीयों का आशय इतना ही हैं कि वह (१६) अभावरुप नहीं हैं । वस्तुतः अविद्या में "भावत्व" धर्म भी नहीं हैं । इस प्रकार अविद्या अनादि और अभावविलक्षण हैं। तदुपरांत अविद्या प्रमाज्ञाननिवर्त्य हैं । अद्वैतवादी के मतानुसार प्रमाण से (-प्रमाकरण से) उत्पन्न होती विषयाकारवाली अंत:करणवृत्ति द्वारा अभिव्यक्त होते चैतन्य को ही ज्ञान (प्रमाज्ञान) कहा जाता हैं । इच्छा, द्वेष (१६) भावत्वं चात्राभावविलक्षत्वमात्रं विवक्षितम्, अत आरोपिताभावोपादानाज्ञानेऽप्यभावविलक्षणत्वस्वीकारान्नाव्याप्तिः । (अद्वैतसिद्धिः, १-५४४) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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