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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ३४३ वह परमात्मा सर्वज्ञ है। और उनका ज्ञानवैभव कही भी रुका हुआ नहीं हैं। इसलिए जो यह प्रभु स्वयं (अपने स्वभाव से) निश्चल रहकर, अपनी माया का आश्रय करके स्वतंत्र वृत्ति से अपनी इच्छा से जगत की उत्पत्ति, पालन, संहार, हर किसी में प्रवेश और सर्व को वश में रखना इत्यादि प्रत्येक व्यापार करते है और अपनी शक्ति से रजोगुण-तमोगुण दोनों को (अपने में प्रवेश करते ही) रोक कर ही क्रीडा करते हैं। इसलिए ही वह तमोगुण और रजोगुण ये परमात्मा को आवरण या विक्षेप नहीं कर सकते हैं। (प्रत्युत) परमात्मा ही उसकी (उन दोनोंकी) प्रवृत्ति में और निवृत्ति में स्वतंत्र रहते हैं। अर्थात् अपनी इच्छा अनुसार ये दो गुणो को सर्वत्र जोडते हैं और रोकते भी हैं । उसको ही श्रुति "धीकर्म" कहती हैं । (अर्थात् रजोगुण और तमोगुण को अपनी इच्छानुसार जोडना और रोकना यह परमेश्वर का ज्ञानपूर्वक का कर्म हैं, ऐसा वेद कहता हैं।) क्योंकि, किसी का निग्रह करना या किसी के उपर अनुग्रह करना वह अथवा रजोगुण से किसी का आवरण करना वह और तमोगुण से विक्षेप करना वह परमेश्वर की शक्ति हैं। प्रत्येक जीव में सत्त्वगुण की हानि (कम) होने से रजोगुण की और तमोगुण की प्रबलता होती हैं। जीव की उपाधि में और जीव में उस रजोगुण का और तमोगुण का कार्य अधिक बलवान होता हैं। उसके कारण ही इस जीव को बंधन है और यह संसार भी उन्हों ने ही किया हुआ प्राप्त होता हैं, जिसमें यह जीव सर्वकाल, बारबार दुःख को देखता हैं । इस संसार का कारण अध्यास हैं । (ब्रह्मरुप) वस्तु में विपरीतता देखना यह अध्यास का स्वरुप हैं और आवरणरुप लक्षणवाला अज्ञान को अध्यास का मूल कहा जाता हैं। ज्ञान से ही अज्ञान दूर होता हैं, कर्म से अज्ञान दूर नहीं होता हैं । क्योकिं कर्म अज्ञान का विरोधी नहीं होने से अज्ञान को दूर नहीं कर सकता। प्रस्तुत चर्चा का सारांश यह हैं कि.... ब्रह्म की ही शक्ति ऐसे अज्ञान से अथवा माया द्वारा जगत बनता हैं।... प्रकृति, शक्ति अथवा अविद्या ये अज्ञान के ही नाम हैं।... अज्ञान अनिर्वचनीय हैं।... अज्ञान ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं या अभिन्न भी नहीं हैं।... समष्टि और व्यष्टि, ऐसे अज्ञान की दो शक्तिर्यां हैं।... समष्टि अज्ञान के कारण एकत्व भासित होता है और व्यष्टि अज्ञान के योग से अनेकता भासित होती हैं।... समष्टि अज्ञान शुद्धसत्त्वगुणप्रधान होने से उत्कृष्ट हैं।... व्यष्टि अज्ञान में रजो-तमोगुण की प्रधानता होने से निकृष्ट हैं।... व्यष्टि अज्ञान से युक्त चैतन्य प्रत्यगात्मा कहा जाता हैं।... अज्ञान अनिर्वचनीय, त्रिगुणात्मक, ज्ञानविरोधी और भावरुप हैं ।... अविद्या आत्मा की उपाधिरुप हैं । उस अविद्या की दो शक्तियाँ हैं- (१) विक्षेपशक्ति, (२) आवरण शक्तिं। आवरण तमोगुण की शक्ति हैं, वह आवरण का कारण हैं।... विक्षेप रजोगुण की शक्ति हैं वह पुरुष की प्रवृत्ति में कारण बनती हैं।... अविद्या अध्यास के कारण ही प्रत्यगात्मा को संसाररुप बन्धन लागु होता हैं।... जो वस्तु जिस स्वरुप में हो, उसको उससे विपरीत स्वरुप में ग्रहण करना वह अध्यास कहा जाता हैं।... अध्यास स्वाभाविक भ्रान्ति का मल है और संसार का प्रथम कारण हैं। अध्यास सर्व अनर्थो का मूल हैं।... परमात्मा की उपाधि शुद्धसत्त्वगुणप्रधानतावाली होती हैं । इसलिए उनका ज्ञानवैभव ढकता नहीं हैं और प्रभु अपने स्वरुप में निश्चल रह सकते हैं। अविद्या के तीन लक्षण : "अद्वैत" की सिद्धि करनेवाले ग्रंथो में अविद्या के तीन लक्षण देखने को मिलते हैं। प्रथम लक्षण :- अनादिभावरूपत्वे सति ज्ञाननिवर्त्यत्वम् अविद्यात्वम् । (अद्वैतसिद्धि) अविद्या अनादि वस्तु है, भावरुप वस्तु है और ज्ञान से निवर्त्य -दूर हो सके- नाश हो सके वैसी हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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